श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’
(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा “रात का चौकीदार” महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत है आपके कुछ यथार्थवादी दोहे “हो यथार्थ पर ध्यान…”।)
☆ तन्मय साहित्य # 147 ☆
☆ हो यथार्थ पर ध्यान… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆
यश-अपयश के बीच में, बहती जीवन धार।
निश्छल मन करता रहे, जीव मात्र से प्यार।।
अति वर्जित हर क्षेत्र में, अति का नशा विचित्र।
अति से दुर्गति ही सदा, छिटके सभी सुमित्र।।
कब बैठे सुख चैन से, नहीं किसी को याद।
कल के सुख की चाह में, आज हुआ बर्बाद।।
फुर्सत मिलती है कहाँ, सबके मुख यह बोल।
बीते समय प्रमाद में, कहाँ समय का मोल।।
फैल रही चारों तरफ, यश की मुदित बयार।
पेड़ सहेगा क्यों भला, म्लान पुष्प का भार।।
ज्यों-ज्यों खिलता पुष्प है, महके रस स्वच्छंद।
रसिक भ्रमर मोहित हुए, पीने को मकरंद।।
कागज के सँग कलम का, है अलिखित अनुबंध।
प्रीत पगी स्याही मिले, महके शब्द सुगंध।।
आदर्शों की बात अब, करना है बेकार।
छल-छद्मों से घिर गए, हैं आचार-विचार।।
सजा मिले सच बोलते, झूठों की जय कार।
हवा भाँपकर जो चले, उसका बेड़ा पार।।
जाति धर्म औ’ पंथ के, भेदभाव को त्याग।
समता भावों में छिपा, जीवन-सुख अनुराग।।
चिह्न समय की रेत पर, बनते मिटते मौन।
पल-पल परिवर्तन करे, वह अबूझ है कौन।।
कौन भरे रस नारियल, सरस संतरे, आम।
एक बीज हो सौ गुना, है ये किसका काम।।
बुद्धि विलास बहुत हुआ, तजें कागजी ज्ञान।
कुछ पल साधे मौन को, हो यथार्थ पर ध्यान।।
खुद ही खुद को छल रहे, बन कर के अनजान।
भटक रहे हैं भूल कर, खुद की ही पहचान।।
अहंकार मीठा जहर, नई-नई नित खोज।
व्यर्थ लादते गर्व को, अपने सिर पर रोज।।
अनुत्तरित हम ही रहे, जब भी किया सवाल।
हमें मिली अवमानना, उनको रंग गुलाल।।
चमकदार संवेदना, बदल गया प्रारब्ध।
अधुनातन गायन रुदन, नव तकनिक उपलब्ध।।
हुआ अजीरण बुद्धि का, बढ़े घमंडी बोल।
आना है फिर शून्य पर, यह दुनिया है गोल।।
© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’
अलीगढ़/भोपाल
मो. 9893266014
≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈