डॉ कुन्दन सिंह परिहार

 

(आपसे यह  साझा करते हुए मुझे अत्यंत प्रसन्नता है कि  वरिष्ठ साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं.  हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं.  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं. कुछ पात्र तो अक्सर हमारे गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं.  उन पात्रों की वाक्पटुता को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं ,जो कथानकों को सजीव बना देता है. डॉ परिहार जी ने  एक ऐसे  नेता के चरित्र का विश्लेषण किया है जो  अपनी मामूली बिमारी से खुद तो परेशान है ही साथ ही उसने अपने चमचों की फ़ौज को भी परेशान कर रखा है।  तरह तरह की बीमारियों के नामों से ही भयभीत होकर तरह तरह के उपाय, मानसिकता और विरोधी पक्ष की तिकड़मों की कल्पना का भय कथानक को बेहद रोचक बना देता है।  फिर डॉ परिहार जी के व्यंग्य के चश्में से ऐसे चुनिंदा चरित्र  तो कदाचित बच ही नहीं सकते। ऐसे सार्थक व्यंग्य के लिए डॉ परिहार जी की  कलम को नमन. आज प्रस्तुत है उनका ऐसे ही विषय पर एक व्यंग्य  “स्वाइन-फ्लू और भैयाजी ”.)
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☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 23 ☆

☆ व्यंग्य  – स्वाइन-फ्लू और भैयाजी   ☆

तीन दिन से भैयाजी हलाकान हैं। जु़काम और खाँसी ने ऐसा पकड़ा है कि चैन नहीं है। नाक पनाला हो गयी है। भैयाजी दो बार छींकते हैं तो चमचे चार बार छींकते हैं। मेज़ पर दवा की शीशियों का ढेर लगा है। हर चमचा एक दो शीशियाँ लाया है, इस इसरार के साथ कि ‘भैयाजी, एक बार जरूर आजमाएं।’

प्रधान चमचा कहता है, ‘भैयाजी, अब आपकी परेशानी देखी नहीं जाती। उठिए, अस्पताल चलिए। जाँच करा देते हैं। कहीं स्वाइन-फ्लू न हो। खतरा नहीं लेना चाहिए।’

भैयाजी भयभीत होकर हाथ उठाते हैं। ‘ना भैया, अस्पताल नहीं जाना है। अस्पताल गया तो गंध मिलते ही अखबार और टीवी वाले पहुँच जाएंगे। अगर स्वाइन-फ्लू निकल आया तो बड़ी किरकिरी हो जाएगी। मेरे विरोधी वैसे भी पीठ पीछे मेरे लिए ‘सुअर’ ‘गधा’ शब्दों का इस्तेमाल करते रहते हैं। स्वाइन-फ्लू निकल आया तो और मखौल उड़ेगा।’

प्रधान चमचा दुखी होकर कहता है, ‘कैसी बातें करते हैं भैयाजी? सैकड़ों लोगों को यह रोग हुआ है।’

भैयाजी कहते हैं, ‘हुआ होगा। उनकी वे जानें। हमें स्वाइन-फ्लू निकल आया तो दुश्मन यही कहेंगे कि हममें सुअर के कुछ गुण होंगे, तभी इस रोग ने हमें पकड़ा। वर्ना स्वाइन-फ्लू का आदमी से क्या लेना देना? भैया, बर्ड-फ्लू तो चल जाएगा, स्वाइन-फ्लू नहीं चलेगा।’

चमचा मुँह लटका कर कहता है, ‘फिर क्या करें भैयाजी?’

भैयाजी कहते हैं, ‘ऐसा करो, कोई भरोसे का डाक्टर हो तो उसे यहीं ले आओ। वह चुपचाप यहीं जाँच कर लेगा। लेकिन पहले उसे गंगाजल हाथ में लेकर कसम खानी होगी कि स्वाइन-फ्लू निकलने पर अपना मुँह बन्द रखेगा।’

प्रधान चमचा कहता है, ‘ठीक है, भैयाजी। मैं कोई माकूल डाक्टर तलाशता हूँ।’

भैयाजी कहते हैं, ‘देख लो भैया। अस्पताल जाना हमें किसी सूरत में मंजूर नहीं। अस्पताल के बजाय सीधे मरघट जाना पसन्द करेंगे।’

 

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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