श्री अरुण श्रीवास्तव
(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आज से प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय कथा श्रंखला “ कहानियां…“ की प्रथम कड़ी ।)
☆ कथा कहानी # 52 – कहानियां – 1 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆
सबसे ज्यादा पढ़ने का आनंद स्वंय अनुभवित कहानियों में आता है जिन्हें आत्मकथा कीै श्रेणी में भी वर्गीकृत किया जा सकता है. इसके पीछे भी शायद यह मनोविज्ञान ही है कि हम लोग दादा /दादी की कहानियां सुनकर ही बड़े हुये हैं जो अक्सर रात में बिस्तर पर लेटे लेटे सुनी जाती थीं और सुनते सुनते ही कहानियों का स्थान नींद लेती थी. कहानियां तब ही खत्म होती थीं जब ये कहानियां सुनने की उमर को छोड़कर बच्चे बड़े हो जाते थे और अपनी खुद की कहानी लिख सकें, इसकी तैयारियों में लग जाते थे. ये दौर शिक्षण के मैदान बदलने का दौर होता है जब बढ़ने का सफर प्राथमिक, माध्यमिक, उच्चतर विद्यालयों से गुजरते हुये महाविद्यालय, विश्वविद्यालय में विराम पाता है और उसके बाद नौकरी, विवाह, परिवार, स्थानांतरण, पदोन्नति के पड़ावों पर ठहरने की कोशिश करता है पर रुकता सेवानिवृत्ति के बाद ही है. जब समय मिलता है , तो समय न मिलने के कारण बंद बस्तों में जंग खा रही रुचियां पुनर्जीवन पाती हैं, साथ ही व्यक्ति धर्म और आध्यात्म, योग और पदयात्रा की तरफ भी कदम बढ़ाता है. हालांकि इसके बाद फिर वही दादा दादी की कहानियों का दौर शुरू होता है पर भूमिका बदल जाती है, सुनने से आगे बढ़कर सुनाने वाली. पर आज के बदलते दौर में, आधुनिक संसाधनों और न्यूक्लिक परिवारों ने कहानियां सुनने वालों को, सुनाने वालों से दूर कर दिया है. ये कटु वास्तविकता है पर सच तो है ही, हो सकता है कि अपवाद स्वरूप कुछ लोग कहानियां सुनाने का आनंद ले पा रहे हों पर सामान्यतः स्थितियॉ बदल चुकी हैं. पर यहां इस ग्रुप में सबको अपने अनुभवों से रची कहानियां कहने का और दूसरों की कहानियां सुनने का मौका मिल रहा है तो बिना किसी दुराग्रह के निश्चित ही इस मंच पर अपनी कहानियां कहने का प्रयास किया जाना चाहिए क्योंकि कहानियां सुनने का शौक तो हर किसी को होता ही है.
“मिलन चक्रवर्ती ” जब अपने बचपन के कोलकाता डेज़ को याद करते हैं तो उनकी फुटबाल सदृश्य गोल गोल आंखों से आँसू और दिल से एक हूक निकलने लगती है.बचपन से ही दोस्तों के मामले में लखपति और दुश्मनों के मामले में भी लखपति रहे थे और ये दोस्तियां स्कूल और कॉलेज से नहीं बल्कि फुटबॉल ग्राउंड पर परवान चढ़ी थीं. मोहनबगान के कट्टर समर्थक, मिलन मोशाय हर मैच के स्थायी दर्शक, हूटर, चियरलीडर सबकुछ थे और उनकी दोस्ती और दुश्मनी का एक ही पैरामीटर था. अगर कोई मोहनबगान क्लब का फैन है तो वो दोस्त और अगर ईस्ट बंगाल क्लब वाला है तो दुश्मन जिसके क्लब के जीतने पर उसकी पिटाई निश्चित है पर उस बंदे को घेरकर कहां मोहन बगान क्लब की हार की भड़ास निकालनी है, इसकी प्लानिंग स्कूल /कॉलेज़ में ही की जाती थी. जब भी ये टारगेट अकेले या मात्र 1-2 लोगों के साथ सपड़ में आ जाता तो जो गोल मिलन बाबू का क्लब फुटबाल ग्राउंड में नहीं कर पाया, वो एक्सट्रा टाईम खेल यहां खेला जाता और फुटबाल का रोल यही बंदा निभाता था. यही खेल मिलन मोशाय के साथ भी खेला जाता था जब ईस्ट बंगाल क्लब हारती थी. पर दोस्ती और दुश्मनी का ये खेल फुटबाल मैच के दौरान या 2-4 दिनों तक ही चला करता था जब तक की अगला मैच न आ जाय. फुटबाल मैच उन दिनों टीवी या मोबाइल पर नहीं बल्कि ग्राउंड पर देखे जाते थे और अगर टिकट नहीं मिल पाई तो ट्रांजिस्टर पर सुने जाते थे. हर क्रूशियल मैच की हार या जीत के बाद नया ट्रांजिस्टर खरीदना जरूरी होता था क्योंकि पिछला वाला तो मैच जीतने की खुशी या मैच हारने के गुस्से में शहीद हो चुका होता था. (फुटबाल में मोशाय गम नहीं मनाते बल्कि गुस्सा मनाते हैं.)आज जब मिलन बाबू पश्चिम मध्य रेल्वे में अधिकारी हैं तो अपने ड्राइंग रूम के लार्ज स्क्रीन स्मार्ट टीवी पर सिर्फ फुटबाल मैच ही देखते हैं. नाम के अनुरूप मिलनसारिता कूट कूट कर भरी है और अपने हर दोस्त को और हर उस ईस्ट बंगाल क्लब के फैन को भी जो कोलकाता से दूर होने के कारण अब उनका दोस्त बन चुका है, उसके जन्मदिन, मैरिज एनिवर्सरी पर जरूर फोन करते हैं. अगर उनकी मित्र मंडली के किसी सदस्य के या उसके परिवार के साथ कोई हादसा होता तो भी फोन पर बात करके उसके दुःख में सहभागी बनने का प्रयास करते रहते थे.जब कभी कोलकाता जाना होता तो कम से कम ऐसे मित्रों से जरूर घर जाकर मिलते थे. मिलन मोशाय न केवल मिलनसार थे बल्कि अपने कोलकाता के दोस्तों से दिल से जुड़े थे. ये उनकी असली दुनियां थी जिसमें उनका मन रमता था. बाकी तो बस यंत्रवत काम करना, परिवार के साथ शॉपिंग और सिटी बंगाली क्लब के आयोजन में परिवार सहित भाग लेना उनके प्रिय शौक थे. डॉक्टर मुखर्जी की सलाह पर उन्होंने टेबल टेनिस खेलना शुरु किया जिसमें एक्सरसाईज़ भी होती थी और मनोरंजन भी. यहां बने उनके कुछ मित्रों की सलाह पर प्रोग्रसिव जमाने के चालचलन को फालो करते हुये उन्होंने स्मार्ट फोन ले डाला और जियो की सिम के दम पर वाट्सएप ग्रुप के सदस्य बन गये.
जारी रहेगा…
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≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈