डॉ. ऋचा शर्मा
(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में अवश्य मिली है किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है एक विचारणीय एवं भावप्रवण कविता ‘बेटी ! मत बन मेरी जैसी’। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को इस लघुकथा रचने के लिए सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद # 105 ☆
☆ कविता – बेटी ! मत बन मेरी जैसी — ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆
ना जाने क्यों
मुझे आईने में
आज अपना नहीं
माँ का चेहरा नजर आया
पनीली-सी आँखें
बोल उठीं मुझसे
छोड़ दिया ना
तुम्हें भी सबने अकेला ?
बेटी ! माँ हूँ तेरी
पर मत बन मेरे जैसी |
घर के कामों को निपटाती
इधर-उधर, ऊपर-नीचे, आती-जाती
बोलोगी खुद से
सवाल तुम्हारे,
जवाब भी तुम्हारे ही होंगे |
सन्नाटे को चीरती आवाज,
लौटेगी तुम तक बार-बार
टी. वी. चलाकर –
दूर करना चाहोगी,
घर में पसरे सूनेपन को
पर कोई नहीं तुम्हारी बात सुननेवाला |
मानों मेरी बात |
बेटी ! माँ हूँ तेरी
पर मत बन मेरे जैसी |
शुरू हो गई है प्रक्रिया
तुम्हें पागल बनाने की
बड़े सलीके से
आईने में दिखती आँखें
मानों रो रही थीं –
कह रही थीं –
निकलो बाहर इस
भीतर – बाहर के सूनेपन से
इससे पहले तुम्हें कोई
पागल करार दे
बेटी ! माँ हूँ तेरी
पर मत बन मेरे जैसी |
©डॉ. ऋचा शर्मा
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