डॉ. सलमा जमाल
(डा. सलमा जमाल जी का ई-अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत है। रानी दुर्गावती विश्विद्यालय जबलपुर से एम. ए. (हिन्दी, इतिहास, समाज शास्त्र), बी.एड., पी एच डी (मानद), डी लिट (मानद), एल. एल.बी. की शिक्षा प्राप्त । 15 वर्षों का शिक्षण कार्य का अनुभव एवं विगत 25 वर्षों से समाज सेवारत ।आकाशवाणी छतरपुर/जबलपुर एवं दूरदर्शन भोपाल में काव्यांजलि में लगभग प्रतिवर्ष रचनाओं का प्रसारण। कवि सम्मेलनों, साहित्यिक एवं सांस्कृतिक संस्थाओं में सक्रिय भागीदारी । विभिन्न पत्र पत्रिकाओं जिनमें भारत सरकार की पत्रिका “पर्यावरण” दिल्ली प्रमुख हैं में रचनाएँ सतत प्रकाशित।अब तक 125 से अधिक राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार/अलंकरण। वर्तमान में अध्यक्ष, अखिल भारतीय हिंदी सेवा समिति, पाँच संस्थाओं की संरक्षिका एवं विभिन्न संस्थाओं में महत्वपूर्ण पदों पर आसीन।
आपके द्वारा रचित अमृत का सागर (गीता-चिन्तन) और बुन्देली हनुमान चालीसा (आल्हा शैली) हमारी साँझा विरासत के प्रतीक है।
आप प्रत्येक बुधवार को आपका साप्ताहिक स्तम्भ ‘सलमा की कलम से’ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण बुन्देली गीत “नाचो मोर…”।
साप्ताहिक स्तम्भ – सलमा की कलम से # 49
बुन्देली गीत – नाचो मोर… डॉ. सलमा जमाल
अंधियारौ छाओ चहुँओर ।
बन में खुस हो नाचो मोर॥॥
रंग-बिरंगे, पंखा जिनमें,
टकीं तरैयाँ भीतर उनमें,
‘लरकन बच्चन को चितचोर।
बन में………… ॥
करिया-करिया बदरा आये,
मोरन नें पंखा फैलाये,
मींऊँ-मींऊँ कौ हो रऔ सोर।
बन में………… ॥
मोर-मोरनी बन में नाचत,
जबईं ढोल बदरा के बाजत,
हौन लगी सतरंगी भोर।
बन में………… ॥
मुकुट-कान्ह के पंख विराजै,
भौत हमाये मन कौं साजै,
कलगी माथे धरी सिरमोर।
बन में………… ॥
साँची-साँची आज तैं बोल,
का लै है पंखन कौ मोल,
जंगल बनौ कय “सलमा” ठौर।
बन में………… ॥
© डा. सलमा जमाल
298, प्रगति नगर, तिलहरी, चौथा मील, मंडला रोड, पोस्ट बिलहरी, जबलपुर 482020
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