प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध
(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी द्वारा रचित एक ग़ज़ल – “जलने वाले दीपों की व्यथा …” । हमारे प्रबुद्ध पाठकगण प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे।)
☆ काव्य धारा #114 ☆ ग़ज़ल – “’जलने वाले दीपों की व्यथा…” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆
बहुतों को जमाने में अपनी किस्मत से शिकायत होती है
क्योंकि उनका उल्टा-सीधी करने की जो आदत होती है।।
जलने वाले दीपों की व्यथा लोगों की समझ कम आती है
सबको अपनी औ’ अपनों की ही ज्यादा हिफाजत होती है।।
नापाक इरादों को अपने सब लोग छुपाये रखते हैं
औरों की सुहानी दुनियां को ढाने की जहालत होती है।।
अनजान के छोटे कामों की तक खुल के बड़ाई की जाती
पर अपने रिश्तेदारों से अनबन व अदावत होती है।।
कई बार किये उपकारों तक का कोई सम्मान नहीं होता
पर खुद के किये गुनाहों तक की बढ़चढ़ के वकालत होती है।।
अपनी न बता औरों की सदा ताका-झांकी करते रहना
बातों को बताना बढ़चढ़ के बहुतों की ये आदत होती है।।
केवल बातों ही बातों से बनती है कोई बात नहीं
बनती है समय जब आता औ’ ईश्वर की इनायत होती है।।
मंदिर, मस्जिद, गुरूद्वारों में जाने से मिला भगवान कहाँ ?
मिलते हैं अकेले में मन से जब उनकी इबादत होती है।।
जो लूटते औरों को अक्सर एक दिन खुद ही लुट जाते हैं
दौलत तो ’विदग्ध वहाँ बसती जिस घर में किफायत होती है।।
© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’
ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी भोपाल ४६२०२३
मो. 9425484452
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈