डॉ. मुक्ता
(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से हम आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख परिस्थिति बनाम मन:स्थिति। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की लेखनी को इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 165 ☆
☆ परिस्थिति बनाम मन:स्थिति ☆
‘जब परिस्थिति को बदलना मुमक़िन न हो, तो मन की स्थिति बदल लीजिए; सब कुछ अपने आप बदल जाएगा।’ परिस्थितियां सदैव हमारे अनुकूल व इच्छानुसार काम नहीं करती और आपदाएं व विपरीत हवाएं अक्सर हमारे पथ में अवरोधक बन कर आती हैं। ऐसी स्थिति में मानव हैरान-परेशान हो जाता है, क्योंकि जीवन में ‘नहीं’ शब्द सुनना किसी को नहीं भाता। जब मानव परिस्थितियों को बदलने में स्वयं को असमर्थ पाता है, तो उसके लिए अपनी मन:स्थिति अर्थात् सोच को बदल लेना बेहतर विकल्प है। नकारात्मक सोच के कारण उसे हर वस्तु में केवल दोष ही दोष नज़र आते हैं और हर व्यक्ति उसे निपट स्वार्थी व आत्मकेंद्रित भासता है। उसके हृदय में शक़, संदेह व संशय का भाव इस क़दर घर कर जाता है कि वह विश्वास से स्वयं को कोसों दूर पाता है। परंतु जब मानव अपनी मन:स्थिति व सोचने का ढंग बदल लेता है, तो उसे वीराना भी गुलशन भासता है और वह जीवन में अभाव व शून्यता को नकार संपूर्णता के दर्शन पाता है। उसे गिलास आधा खाली नहीं; भरा दिखाई देता है। बस अपनी सोच और नज़रिया बदलने से यह संसार हमें ख़ुशनुमा प्रतीत होता है। पल-पल रंग बदलती प्रकृति हमारे हृदय को आंदोलित व आनंदोल्लास से आप्लावित करती है। उस स्थिति में प्रकृति हमें ‘माया महा-ठगिनी’ नहीं प्रतीत होती, बल्कि संगिनी-सम भासती है।
‘सौंदर्य व्यक्ति के नेत्रों में नहीं, उसके नज़रिया में होता है’ वर्ड्सवर्थ का यह कथन अत्यंत सार्थक है कि सौंदर्य व्यक्ति में नहीं, दृष्टा के नेत्रों में होता है। इसलिए कहा जाता है नज़रें बदलिए, नज़ारे स्वयं बदल जाएंगे अर्थात् नज़रिया बदलने से मानव का जीने का ढंग स्वत: परिवर्तित हो जाएगा। समय और समझ दोनों एक साथ किस्मत वालों को ही मिलते हैं, क्योंकि अक्सर समय रहते मानव को समझ नहीं आती और समझ आने पर समय हाथ से निकल जाता है। सो! समय और समझ का छत्तीस का आँकड़ा है। दोनों निर्धारित समय पर दस्तक नहीं देते, क्योंकि हम आजीवन मायाजाल में फंसे रहते हैं और अहं के जंजाल से मुक्त नहीं हो पाते। इसका मुख्य कारण है कि हम स्वयं को सबसे श्रेष्ठ समझते हैं और अन्य लोगों से अलग-अलग पड़ जाते हैं।
परंतु एक अंतराल के पश्चात् जब हमें समझ आती है, तो एकांत हमें सालने लगता है और हम उन सबके सानिध्य में रहना चाहते हैं, जिनसे हम वर्षों पूर्व किनारा कर आए थे। परंतु अब उन्हें हमारी दरक़ार नहीं होती और वे हमसे मुंह फेर लेते हैं। उन असामान्य परिस्थितियों में हमारी स्थिति ‘अब पछताए होत क्या, जब चिड़िया चुग गई खेत’ जैसी हो जाती है। हम चाहकर भी कुछ नहीं कर सकते, क्योंकि परिस्थितियों पर हमारा वश नहीं रहता। ऐसे समय में यदि मानव अपनी मन:स्थिति परिवर्तित कर लेता है, तो वह तनाव या अवसाद की स्थिति से मुक्त रह पाता है, अन्यथा वह उस चक्रव्यूह में फंस स्वयं को असहाय दशा में पाता है। इसके विपरीत यदि मानव समय के प्रभाव व महत्ता को अनुभव करते हुए सही निर्णय लेकर अपना जीवन बसर करता है, तो उसकी जीवन रूपी गाड़ी सीधी-सपाट दिशा में चलती रहती है, अन्यथा वह स्वयं को सुनामी की गगनचुंबी लहरों में कैद अनुभव करता है। लाख प्रयास करने पर भी वह उस चक्रव्यूह से मुक्त नहीं हो पाता और उसकी दशा पंखहीन पक्षी जैसी हो जाती है।
‘भाग्य कोई लिखा हुआ दस्तावेज़ नहीं है। उसे तो रोज़-रोज़ स्वयं लिखना पड़ता है’ अर्थात् मानव ख़ुद अपना भाग्य-निर्माता है। मुझे स्मरण हो रही हैं वे पंक्तियाँ ‘जैसे कर्म करेगा, वैसा फल पायेगा इंसान’ अर्थात् मानव को अपने कृत-कर्मों का फल अवश्य भुगतना पड़ता है। सो! मानव अपने नित्य कर्मों परिश्रम, साहस, लगन व धैर्य द्वारा अपने लक्ष्य को प्राप्त कर सकता है। उसे कभी भी ज़िद्दी नहीं होना चाहिए, बल्कि समय व परिस्थितियों के अनुसार अपने स्वभाव में परिवर्तन लाना चाहिए। जो व्यक्ति समयानुसार समझ से अपने कार्य को अंजाम देता है; सफलता सदैव उसके कदम चूमती है। सो! मानव का स्वभाव लचीला व दृष्टिकोण समझौतावादी होना चाहिए, क्योंकि अकड़ व अभिमान एक मानसिक रोग है, जिसका इलाज क़ुदरत समय पर अवश्य करती है। ऐसा व्यक्ति अक्सर आत्मकेंद्रित होता है और दूसरों के अस्तित्व को अहमियत नहीं देता। परिणामतः वह नकारात्मकता का भाव उसे पतन की राह की ओर अग्रसर करता है।
‘वह शख्स जो झुक के तुमसे मिला होगा/ यक़ीनन उसका क़द तुमसे बड़ा होगा’ मानव में निहित विनम्रता के सर्वश्रेष्ठ भाव को दर्शाता है। जो व्यक्ति अहंनिष्ठ नहीं है और ज़मीन से जुड़ा हुआ है; वह दूसरों से सदैव झुक कर मिलता है; दुआ सलाम करता है। वास्तव में उसका क़द दूसरों से बड़ा होता है, क्योंकि मीठे फल उन डालियों पर लगते हैं, जो झुकी रहती हैं। इसलिए मानव को सदैव विनम्र व मौन रहने की सीख दी जाती है, क्योंकि मौन उसका सबसे बड़ा आभूषण है। मौन और मुस्कान दोनों का प्रयोग कीजिए, क्योंकि मौन रक्षा-कवच है और मुस्कान स्वागत-द्वार। मौन से आगामी आपदाओं को रोका जा सकता है, तो मुस्कान से कई समस्याओं का हल निकाला जा सकता है–उक्त कथन अत्यंत कारग़र है। इसलिए मानव को सदैव प्रसन्न रहने का संदेश दिया जाता है। वास्तव में मौन एक संजीवनी है, तो मुस्कान बंद द्वारों को खोलने की चाबी है, जिसके द्वारा आप सबके प्रिय बन सकते हैं। वे मानव को काम क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार आदि से दूर रखते हैं और उस स्थिति में स्व-पर व राग-द्वेष उसके निकट आने से क़तराते हैं।
‘अंधेरों की साज़िशें रोज़-रोज़ होती हैं/ फिर भी उजाले की/ हर सुबह जीत होती है।’ यह कथन मानव के आत्मविश्वास की ओर इंगित करता है कि रात्रि के समय अंधकार का पदार्पण होता है और उसके पश्चात् सुबह का आगमन अवश्यंभावी है। अंधकार पर प्रकाश की विजय होना निश्चित् है। ‘दिन रात बदलते हैं/ हालात बदलते हैं/ यह समां बदलता है/ जज़्बात बदलते हैं/ यादों से महज़ दिल को/ मिलता नहीं सुक़ून/ ग़र साथ हो सुरों का/ नग़मात् बदलते हैं’ स्वरचित मुक्तक यह संदेश देता है कि समय परिवर्तनशील है और उसके साथ हमारी मन:स्थिति भी बदलती रहती है। जिस प्रकार सुरों के साथ संगीत के होने से सोने पर सुहागा हो जाता है और वह गीत अमर हो जाता है। इसलिए ऐ मानव! धैर्य और भरोसा रख; समय व परिस्थिति के अनुकूल अपनी मन:स्थिति को बदलने का उपक्रम कर, तो कोई भी आपदा तेरे जीवन में दस्तक नहीं दे पाएगी और सफलता तेरे कदमों में आँचल बिछाए प्रतीक्षारत रहेगी।
© डा. मुक्ता
माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी
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