श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है  एक शिक्षाप्रद लघुकथा “मोहन-विहार ”।) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 148 ☆

🌺 लघुकथा 🏠 मोहन-विहार 🏠

पूरन सिंह खेत में काम कर रहे थे। मटर तोड़ा जा रहा था। काफी एरिया में फैला हुआ खेत, बारहों महीने कुछ ना कुछ फसल लगी होती थी। आज मकर सक्रांति पर सुबह – सुबह तैयार होकर वह खेत पर आ चुके थे।

उनके अपने दोनों बेटे बहू के आपसी मतभेद के कारण उनका अपना घर ‘मोहन-बिहार’ दो भागों में बंट चुका था। कान्हा जी के अनन्य भक्त थे। वह नहीं चाहते थे कि घर में किसी प्रकार का कोई कलह बने।

किसी बात को लेकर कहा सुनी हो गई थी। दोनों भाइयों में मनमुटाव हो गया था। खेत में बैठकर वह अपने भगवान कान्हा जी का भजन सुन रहे थे और धीरे-धीरे मटर तोड़ रहे थे।

उन्होंने देखा कि थोड़ी दूर से छोटी बहू घूंघट निकाल हाथों में झोला लिए खेतों की ओर चली आ रही है। आकर बोली… “बाबूजी खिचड़ी लाई हूं प्रसाद के रूप में खा लीजिए।” थाली पर निकाल ही रही थी कि बड़ी बहू जल्दी-जल्दी हांफते हुए आई और आते ही कहने लगी…. “मैंने अब आप की पसंद से खिचड़ी बनाई है, बाबूजी इस डिब्बे से खाइए।”

पूरन सिंह ने कहा…. “हाँ – हाँ थाली ले आओ।” थाली में एक कोने पर थोड़ी सी खिचड़ी बड़ी बहू की ले लिया और एक कोने पर छोटी बहू की थोड़ी सी खिचड़ी ले लिया, और दोनों को एक- एक बार खाने लगे।

परंतु यह क्या? बाबू जी ने कहा… “खिचड़ी में बिल्कुल भी स्वाद नहीं है समझ नहीं आ रहा है किस चीज की कमी हुई है।”

बहुएं कहने लगी… “मैंने  तो बहुत ध्यान से नमक दाल का ख्याल रखा है मेरी खिचड़ी अच्छी होगी।”

दूसरी ने कहा “मैंने तो बहुत मेहनत से खिचड़ी बनाई है। खाकर भी देखी है, स्वाद बहुत अच्छा है कोई कमी नहीं है। सब कुछ सही डाला है। पिताजी.. मेरी लाई खिचड़ी खा लीजिए, खराब नहीं है।”

पिताजी ने कहा -” ठीक है”। तब तक बेटे भी आ चुके थे। खड़े-खड़े सब देख रहे थे। पिताजी ने थाली में एक चम्मच से दोनों खिचड़ी को इधर-उधर मिलाकर एक कर लिया और अपने जेब से घी की डिबिया निकालकर उस पर डालकर खाने लगे।

नीचे सिर करके ही बोले…. “अब खिचड़ी में स्वाद आ गया। चाहो तो तुम दोनों भी खा सकते हो।” दोनों बेटों ने देखा, आँखों से बातें हुई और पिता का आशय जानते ही दोनों ने तुरंत पिताजी की थाली के साथ बैठ खिचड़ी खाने लगे।

दोनों बहुओं का डिब्बा खिचड़ी मिला – मिला कर खाया गया और खत्म हो गया।

बहुएं जो अब तक एक दूसरे की तरफ पीठ किए खड़ी थी। एक दूसरे को गले लग कर मकर सक्रांति की बधाइयाँ दे रही थी और तिल के लड्डू को एक दूसरे को खिला रही थी। जो बात घर में समझाने पर भी बेटा बहू नहीं समझ रहे थे। आज पूरन सिंह ने खेतों में कर दिखाया और किसी की सहायता भी नहीं ली और काम बन गया। उनकी आँखों से खुशी के आँसू बहने लगे और हंसते हुए बोले….. “मुझे भी कोई पूछेगा लड्डू खाने को।”

दोनों बहुओं ने एक थाली में अपने-अपने लड्डू डाल मिलाकर परोस दिये… कहा… “पिताजी कोई भी खा लीजिए मिठास एक जैसी ही आएगी।” यही तो चाहते थे पूरन सिंह ‘मोहन-विहार’ के लिए।  

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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