(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ” में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक विचारणीय व्यंग्य – चले गए अंग्रेज पर —।)
व्यंग्य – चले गए अंग्रेज पर —
(प्रत्येक लेखक की प्रथम रचना लेखक के लिए अविस्मरणीय होती है। हमें आपकी प्रथम रचना साझा करने में अत्यंत प्रसन्नता होगी। आज हम व्यंग्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी की प्रथम व्यंग्य रचना आपसे साझा कर रहे हैं।)
लार्ड मैकाले का भयंकर कहकहा, सुनकर मेरा सपना ‘टूटा नींद, खुली तो देखा कि जिसे मैंने लार्ड मैकाले का कहकहा समझा था वह शिक्षित बेरोजगार ‘गोपाल जो नौकरी न मिलने से पागल हो गया है, की भयानक हंसी है।
इलेक्ट्रीसिट बोर्ड की कृपा से पंखा बंद हो गया है। और स्वास्थ्य विभाग की कृपा से मच्छर मच्छरदानी में हैं। छिडकाव के लिए आया डी. डी. टी. कहां गया अधिकारियों की जेबों में और फाइलों में “मस्तिष्क ज्वर, पर पूर्ण नियंत्रण हो चुका क्योंकि हजारों रुपये खर्च हो गये।
उफ! मैं तो सिहर उठता हूं रात का यह स्वप्न सोचकर, मैं शायद किसी डाक्टर की शिकायत लेकर सिविल सर्जन से मिलने अस्पताल गया था, वहां शायद हैजा विरोधी अभियान चल रहा था। मुझे जबदस्ती टीका लगा दिया जाता है मिलावट का परिणाम हो या ‘आरक्षित सीट’ से बने डाक्टर साहब की कृपा पर मैं बेहोश होकर गिर पड़ता हूँ, इधर “पिछड़े वर्ग” के “स्वतन्त्रता संग्राम सेनानी वर्ग के ये डाक्टर साहब मुझे मृत घोषित कर देते हैं। जब मुझे सफेद चादर से लपेट दिया जाता है, तो मैं चिल्लाना चाहता हूँ की मैं जिंदा हूँ, पर मैं मृत होने का नाटक ही करना अच्छा समझता हूँ, क्योंकि मैं जानता हूं कि यह सरकारी अस्पताल है यहां जो निर्णय एक बार हो जाते है। वो इतनी आसानी से बदलते नहीं।
तो साहब मैं यमपुरी पहुंच जाता हूँ, वहां पहुंचते ही किसी फट्टा छाप सिनेमा टाकीज के गेट कीपर की तरह के दादा दरबान मुझे भीतर घुसने से रोकते हैं “अभी तो तुम्हारी मौत का आर्डर ही नहीं निकला।” पर मुझे तो यम लोक की सैर करनी थी, रोब गालिब करते हुए मैने कहा क्या एम. बी. बी. एस. डाक्टर से भी ज्यादा होशियार हो? देखो सरकारी अस्पताल के रजिस्टर में मैं मर चुका था। इसका उपयुक्त प्रभाव पड़ा और मैं यमपुरी में प्रवेश पा गया। सहमा सा मैं आग बढ़ा ही था कि सामने से एक अफसर किस्म का अंग्रेज भूत, मुंह में सिंगार थामें आता दिखा। मैंने अपने एडवांस होने का परिचय दिया- हाय। उसने गर्म जोशी, से कर-मर्दन किया, ग्लेड टू मीट यू, माई सेल्फ लार्ड मैकाले। मैंने उसे ऊपर से नीचे तक देखा, पर तब तक वह मुझे सामने वाले कैफेटोरिया में ‘टी’ आफर कर चुका था और बरबस मैं उसके साथ टेबल की ओर बढ़ा। चाय ‘सिप’ करते हुए उन्होंने कहा कि वह बहुत दिनों से किसी इण्डियन की तलाश में है और वह जानना चाहते हैं, कि क्या वहां उनकी बाबू बनाने वाली शिक्षा प्रणाली ही चल रही है, क्या अभी भी उसी तरह शिक्षा के नाम पर बस डिग्री धारी ही पैदा हो रहे हैं?
फिर उन्होंने पूछा कि क्या भारतीय अब भी मुस्कराकर अंग्रेजी बोलने में अपना गौरव समझते हैं? बात-बात पर सॉरी कहे बिना सोसाइटी आदमी को अर्वाचीन आदम को समझती है। मुझे इन सवालों के सच्चे सकारात्मर उत्तर देने में बड़ी घुटन महसूस हो रही थी, इसलिये मैंने कहा – “पर मैकाले साहब अब आप भी सुन लीजिये कि हम आपकी इस अंग्रेजीयत के और ज्यादा गुलाम नही रहेंगे। हमारे नेता अफसर जल्दी से जल्दी हिंदी लाने का प्रयास कर रहे हैं।”
मैं कुछ और कहता इससे पहले ही मैकाले फिर बोल उठा – “क्यों भूलता है कि तुम अंग्रेजियत की गुलामी नहीं छोड़ सकता। हमने जो अंग्रेजी नाम रखा, बिल्डिंग, कालेज, रोड का वो तक तो तुम नही बदल सके आज तक, इंडिया गेट से, गेट वे आफ इंडिया तक।”
(रचना तिथि : 21/9/ 1980, जन्म तिथि : 28/7/59)
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