श्रीमति विशाखा मुलमुले
(श्रीमती विशाखा मुलमुले जी हिंदी साहित्य की कविता, गीत एवं लघुकथा विधा की सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी रचनाएँ कई प्रतिष्ठित पत्रिकाओं/ई-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहती हैं. आपकी कविताओं का पंजाबी एवं मराठी में भी अनुवाद हो चुका है। आज प्रस्तुत है उनकी एक अतिसुन्दर रचना निर्वासित . अब आप प्रत्येक रविवार को श्रीमती विशाखा मुलमुले जी की रचनाएँ “साप्ताहिक स्तम्भ – विशाखा की नज़र से” में पढ़ सकेंगे. )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 12 – विशाखा की नज़र से ☆
☆ निर्वासित ☆
पहले वो ज्वार उगाती थी
वही खाती और खिलाती थी ।
पर कई बरस सूखा पडा ,पानी दुश्वार हुआ ।
धरती तपी और बहुत तपी
फिर उसने कपास ऊगाया
उसे ओढा औरों को ओढ़ाया
पर इस बदलाव से धरती का सीना छलनी हुआ
उसके हर बूँद का दोहन हुआ
फिर ना उसमें कपास ऊगा ।
कुछ थे इसी फ़िराक में ,जमीन के जुगाड़ में
उन्होंने कंक्रीट का जंगल बुना
खरपतवार सा उसे फेंका गया
पर उसी जगह उसे काम मिला
परिचय पत्र पर नया नाम मिला
पर कितने ही बर्तन वो साफ़ करें
हर वक्त उसे फटकार मिले
कोने में माटी का संसार मिले
माटी की थी देह उसकी
माटी में ही मिल गई ।
© विशाखा मुलमुले
पुणे, महाराष्ट्र