श्री सुरेश पटवा
(श्री सुरेश पटवा जी भारतीय स्टेट बैंक से सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों स्त्री-पुरुष “, गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व प्रतिसाद मिला है। श्री सुरेश पटवा जी ‘आतिश’ उपनाम से गज़लें भी लिखते हैं ।प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ आतिश का तरकश।आज प्रस्तुत है आपकी ग़ज़ल “मुक़र्रर इस जीस्त की कुछ सजाएँ…”।)
ग़ज़ल # 65 – “मुक़र्रर इस जीस्त की कुछ सजाएँ…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’
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उम्र का सफ़र अब ढलने लगा है,
सब्र का पानी पिघलने लगा है।
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ज़िल्लतों को ढो लिया बहुत दिन,
वजन कंधों पर से उतरने लगा है।
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ज़माने की भीड़ में कोई नहीं मेरा,
आरज़ूओं का नशा ढलने लगा है।
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मुक़र्रर इस जीस्त की कुछ सजाएँ,
फ़ना का साया अब उभरने लगा है।
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बदरंग हो चली हैं अब सब तस्वीरें,
ख़्वाहिशों का पानी जमने लगा है।
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देख कर मेला यहाँ रुसवाइयों का,
ज़िंदगी का मक़सद घुलने लगा है।
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आशिक़ी में हम रहे नाकाम आतिश,
यारों को हमारा साथ खलने लगा है।
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© श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’
भोपाल, मध्य प्रदेश
≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈