श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना “उठा पटक के मुद्दे…। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 142 ☆

☆ उठा पटक के मुद्दे ☆

बे सिर पैर की बातों में समय नष्ट नहीं करना चाहिए, ये तो बड़े- बूढ़ों द्वारा बचपन से ही सिखाया जाता रहा है। पर क्या किया जाए आजकल एकल परिवारों का चलन आम बात हो चुकी है। और खास बात ये है कि माता- पिता अब स्वयं कुछ न बता कर गूगल से सीखने और समझने के लिए बच्चों को शिशुकाल से ही छोड़ने लगे हैं। पहले बच्चा मनोरंजन हेतु फनी चित्र देखता फिर अपने आयु के स्तर से आगे बढ़कर जानकारी एकत्रित करता है। शनिवार की शाम को आउटिंग के नाम पर होटलों में बीतती है, रविवार मनोरंजन करते हुए कैसे गुजरता है पता नहीं चलता। बस ऐसा ही सालों तक होता जाता है और तकनीकी से समृद्ध पीढ़ी आगे आकर अपने विचारों को बिना समझे सबके सामने रखती जाती है। अरे भई नैतिक व सामाजिक नियमों से ये संसार चल रहा है। हम लोग रोबोट नहीं हैं कि भावनाओं को शून्य करते हुए अनर्गल बातचीत करते रहें।

बातन हाथी पाइए, बातन हाथी पाँव- कितना सटीक मुहावरा है। बच्चे को सबसे पहले बोलने की कला अवश्य सिखानी चाहिए। पढ़ने- लिखने के साथ यदि वैदिक ज्ञान भी हो जाए तो संस्कार की पूँजी अपने आप हमारे विचारों से झलकने लगती है। भारतीय परिवेश में रहने के लिए, वो भी सामाजिक मुद्दों पर अपने को श्रेष्ठ साबित करने हेतु आपको जमीनी स्तर पर जीना सीखना होगा। पाश्चात्य मानसिकता के साथ शासन करना तो ठीक वैसे ही होता है, जैसे ईस्ट इंडिया कम्पनी ने 200 वर्षों तक हमें गुलामी में जकड़े रखा। अब लोग सचेत हो चुके हैं वो केवल राष्ट्रवादी विचारों के पोषक व संवाहक बन अंतर्राष्ट्रीय जगत में अपना परचम पहराने की क्षमता रखते हैं।

अन्ततः यही कहा जा सकता है कि यथार्थ के धरातल पर प्रयोग करते रहिए। जल, जंगल, जमीन, जनजीवन, जनचेतना, जनांदोलनों के जरिए हमें वैचारिक दृष्टिकोण को सबके सामने रखना सीखना होगा।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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