डॉ. मुक्ता
डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से हम आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख ज़िन्दगी का सफ़र। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की लेखनी को इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 176 ☆
☆ ज़िन्दगी का सफ़र ☆
‘पा लेने की बेचैनी/ और खो देने का डर / बस इतना ही है/ ज़िन्दगी का सफ़र’ यह वह भंवर है, जिसमें फंसा मानव लाख चाहने पर भी सुक़ून नहीं प्राप्त कर सकता। इंसान की फ़ितरत है कि वह किसी भी स्थिति में शांत नहीं रह सकता। यदि किसी कारण-वश उसे मनचाहा प्राप्त नहीं होता, तो वह आकुल-व्याकुल व क्लान्त हो जाता है। उसके हृदय की भाव-लहरियां उसे पल भर के लिए भी चैन से नहीं बैठने देतीं। वह हताश-निराश स्थिति में रहने लगता है और लंबे समय तक असामान्य वातावरण में रहने के कारण अवसाद-ग्रस्त हो जाता है, जिसकी परिणति अक्सर आत्महत्या के रूप में परिलक्षित होती है।
इतना ही नहीं, मनचाहा प्राप्त होने के पश्चात् उसे खो देने के प्रति मानव-मन आशंकित रहता है। इस स्थिति में बावरा मन भूल जाता है कि जो आज है, कल नहीं रहेगा, क्योंकि समय व प्रकृति परिवर्तनशील है और प्रकृति पल-पल रंग बदलती है, जिसका उदाहरण हैं…दिन-रात, अमावस-पूनम, ऋतु-परिवर्तन, फूलों का सूर्योदय होते खिलना व सूर्यास्त के समय मुरझा जाना… यह सिलसिला आजीवन अनवरत चलता रहता है और प्राकृतिक आपदाओं का समय-असमय दस्तक देना मानव-मन को आशंकित कर देता है। फलतः वह इसी ऊहापोह में फंसकर रह जाता है कि ‘कल क्या होगा? यदि स्थिति में परिवर्तन हुआ तो वह कैसे जी पाएगा और उन विषम परिस्थितियों से समझौता कैसे कर सकेगा? परंतु वह इस तथ्य को भुला देता है कि अगली सांस लेने के पहले मानव के लिए पहली सांस को बाहर निकाल फेंकना अनिवार्य होता है…और जब इस प्रक्रिया में व्यवधान उत्पन्न होता है, तो वह हृदय-रोग अथवा मस्तिष्काघात का रूप धारण कर लेता है।
सो! मानव को सदैव हर परिस्थिति में सम रहना चाहिए। व्यर्थ की चिंता, व्यग्रता, आवेश व आक्रोश उसके जीवन के संतुलन को बिगाड़ देते हैं; जीवन-धारा को बदल देते हैं और उस स्थिति में वह स्व-पर, राग-द्वेष अर्थात् तेरा-मेरा के विषाक्त चक्र में फंसकर रह जाता है। संशय, अनिश्चय व अनिर्णय की स्थिति बहुत घातक होती है, जिसमें उसकी जीवन-नौका डूबती- उतराती रहती है। वैसे ज़िंदगी सुखों व दु:खों का झरोखा है, आईना है। उसमें कभी दु:ख दस्तक देते हैं, तो कभी सुखों का सहसा पदार्पण होता है; कभी मन प्रसन्न होता है, तो कभी ग़मों के सागर में अवग़ाहन करता है। इस मन:स्थिति में वह भूल जाता है कि सुख-दु:ख दोनों अतिथि हैं… एक मंच पर इकट्ठे नहीं दिखाई पड़ सकते। एक के जाने के पश्चात् दूसरा दस्तक देता है और यह सिलसिला अनवरत चलता रहता है। अमावस के पश्चात् पूनम, गर्मी के पश्चात् सर्दी आदि विभिन्न ऋतुओं का आगमन क्रमशः निश्चित है, अवश्यंभावी है। सो! मानव को कभी भी निराशा का दामन नहीं थामना चाहिये।
दुनिया एक मुसाफ़िरखाना है, जहां अतिथि आते हैं और कुछ समय ठहरने के पश्चात् लौट जाते हैं। इसलिए मानव को कभी भी, किसी से अपेक्षा नहीं करनी चाहिए। अपेक्षा व इच्छाएं दु:खों का मूल कारण हैं। दूसरे शब्दों में सुख का लालच व उनके खो जाने की आशंका में डूबा मानव सदैव संशय की स्थिति में रहता है, जिससे उबर पाना मानव के वश में नहीं होता। सो! ज़िंदगी एक सफ़र है, जहां हर दिन नए क़िरदारों से मुलाकात होती है, नए साथी मिलते हैं; जो कुछ समय साथ रहते हैं और उसके पश्चात् बीच राह छोड़ कर चल देते हैं। कई बार मोह-वश हम उनकी जुदाई की आशंका को महसूस कर हैरान- परेशान व उद्वेलित हो उठते हैं और निराशा के भंवर में डूबते-उतराते, हिचकोले खाते रह जाते हैं, जो सर्वथा अनुचित है।
इंसान मिट्टी का खिलौना है..पानी के बुलबुले के समान उसका अस्तित्व क्षणिक है, जो पल-भर में नष्ट हो जाने वाला है। बुलबुला जल से उपजता है और पुन: जल में समा जाता है। उसी प्रकार मनुष्य का जीवन भी पंच-तत्वों से निर्मित है, जो अंत में उनमें ही विलीन हो जाता है। अक्सर परिवार-जन व संबंधी हमारे जीवन में हलचल उत्पन्न करते हैं, उद्वेलित करते हैं और वास्तव में वे समय-समय पर आने वाले भूकंप की भांति हैं, जो ज्वालामुखी के लावे की भांति समय-समय पर फूटते रहते हैं और कुछ समय पश्चात् शांत हो जाते हैं। परंतु कई बार मानव इन विषम परिस्थितियों में विचलित हो जाता है और स्वयं को कोसने लगता है, जो अनुचित है, क्योंकि समय सदैव एक-सा नहीं रहता। समय के साथ-साथ प्रकृति में परिवर्तन होते रहते हैं। इसलिए हमें हर परिस्थिति को जीवन में सहर्ष स्वीकारना चाहिए।
आइए! इन असामान्य परिस्थितियों की विवेचना करें… यह तीन प्रकार की होती हैं। प्राकृतिक आपदाएं व जन्म-जात संबंध..जिन पर मानव का वश नहीं होता। उन्हें स्वीकारने में ही मानव का हित होता है, क्योंकि उन्हें बदलना संभव नहीं होता। दूसरी हैं– मानवीय आपदाएं, जो हमारे परिवार-जन व संबंधियों के रूप में हमारे जीवन में पदार्पण करती हैं, भले ही वे स्वयं को हमारा हितैषी कहते हैं। उन्हें हम सुधार सकते हैं, उनमें परिवर्तन ला सकते हैं… जैसे क्रोधित व्यक्ति से कन्नी काट लेना; प्रतिक्रिया देने की अपेक्षा उस स्थान को छोड़ देना; आक्षेप सत्य होने पर भी स्पष्टीकरण न देना आदि…क्योंकि क्षणिक आवेग, संचारी भावों की भांति पलक झपकते विलीन हो जाते हैं और निराशा रूपी बादल छँट जाते हैं। तीसरी आपदाओं के अंतर्गत सचेत रह कर उन परिस्थितियों व आपदाओं का सामना करना अर्थात् कोई अन्य समाधान निकाल कर दूसरों के अनुभव से सीख लेकर, उनका सहर्ष सामना करना। इस प्रकार हम अप्रत्याशित हादसों को रोक सकते हैं।
आइए! ज़िंदगी के सफ़र को सुहाना बनाने का प्रयास करें। ज़िंदगी की ऊहापोह से ऊपर उठ कर सुक़ून पाएं और हर परिस्थिति में सम रहें। सामंजस्यता ही जीवन है। परेशानियां आती हैं; जीवन में उथल-पुथल मचाती हैं और कुछ समय पश्चात् स्वयंमेव शांत हो जाती हैं; समाप्त हो जाती हैं। इसलिए इनसे भयभीत व त्रस्त होकर निराशा का दामन कभी नहीं थामना चाहिए। यदि हम में सामर्थ्य है, तो हमें उनका डट कर सामना करना चाहिए। यदि हम स्वयं को विषम परिस्थितियों का सामना करने में अक्षम पाते हैं, तो हमें अपना रास्ता बदल लेना चाहिए और उनसे अकारण सींग नहीं लड़ाने चाहियें।
आप सोते हुए मनुष्य को तो जगा सकते हैं, परंतु जागते हुए को जगाना सम्भव नहीं है। उसे सत्य से अवगत कराने का प्रयास, तो भैंस के सम्मुख बीन बजाने जैसा होगा। इस परिस्थिति में अपना रास्ता बदल लेना ही कारग़र उपाय है। सो! जो भी आपके पास है, उसे संजोकर रखिए। जो अपना नहीं है, कभी मिलेगा नहीं …यदि मिल भी गया, तो टिकेगा नहीं और जो भाग्य में है, वह अवश्य मिल कर रहेगा। इसलिए मानव को किसी वस्तु या प्रिय-जन के खो जाने की आशंका से स्वयं को विमुक्त कर अपना जीवन बसर करना चाहिए…’न किसी के मिलने की खुशी, न उससे बिछुड़ने अथवा खो जाने के भय व ग़म, अर्थात् हमें अपने मन को ग़ुलाम बना कर नहीं रखना चाहिए और न ही उसके अभाव में विचलित होना चाहिए।’ यह अलौकिक आनंद की स्थिति मानव को समरसता प्रदान करती है।
© डा. मुक्ता
माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी
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