(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जो साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक के माध्यम से हमें अविराम पुस्तक चर्चा प्रकाशनार्थ साझा कर रहे हैं । श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका दैनंदिन जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं।
आज प्रस्तुत है श्री राजा सिंह जी के उपन्यास “अंततः” पर पुस्तक चर्चा।
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 134 ☆
☆ “अंततः” – श्री राजा सिंह ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆
पुस्तक चर्चा
अंततः (उपन्यास)
लेखक – राजा सिंह
पृष्ठ – १४४, मूल्य – ४५० रु
प्रकाशक – राष्ट्रीय पुस्तक सदन, दिल्ली ३२
अंततः उपन्यास की बेबाक समीक्षा स्वयं लेखक राजा सिंह ने पुस्तक के प्रारंभ में अपने दो शब्द के अंतर्गत कर रखी है. राजा सिंह एक उम्दा समकालीन कहानीकार हैं. यह उपन्यास उनकी छठविं कृति है. इससे पहले वर्ष २०१५ में अवशेष प्रणय, २०१८ में पचास के पार, २०२० में बिना मतलब और २०२१ में पलायन नाम से उनकी कहानियां पुस्तकाकार प्रकाशित हुई और सराही गई हैं. २०२१ में पहला उपन्यास बनियों की विलायत आया था. अंततः दूसरा उपन्यास है, यह वर्ष २०२२ में प्रकाशित हुआ है. राजा सिंह निरंतर लेकन कर रहे हैं, सभी उत्कृष्ट पतरिकाओ में समय समय पर उन्हें पढ़ने के अवसर मिलते रहते हैं. वे अपने परिवेश से चरित्रों को ढ़ूंढ़कर कहानी में उतार देने की कला में माहिर हैं. प्रस्तुत ७पन्यास के लेककीय व्यक्त्व्य में वे लिखते हैं कि उपन्यास की उनकी नायिका यथार्थ है. जिसकी जिजीविषा की कहानी ही अंततः है. एक महत्वाकांक्षी लडकी की यंत्रणा को अनुभव कर संवेदनशील शब्दों में अभिव्यक्ति दे पाना लेखकीय सफलता है. देहात और औसत शहरी वातावरण के कथानक के अनुरूप भाषा, और उपन्यास के पात्रों का नामकरण राजा सिंह के लेखन की विशेषता है. इस उपन्यास में उन्होंने रघु और सीता के इर्द गिर्द कहानी बुनी है.
“उन सबन की बराबरी जिन करा, हमरे पास कौनव खंती न गड़ी है, कहाँ से पढ़ाई करवाते ? घर मा खाना लत्ता तो मुश्किल से जुड़त है शाहबजादी को पढ़ाई कहाँ से करवाते ? माँ बिसुरने लगी ” बातचीत शैली में कही गई, सीता के संघर्ष की कहानी है अंततः. यद्यपि बेहतर होता कि भले ही वास्तविक जिंदगी में नायिका को सफलता न भी मिली हो पर उपन्यास में सफल सुखान्त किया जा सकता था. राजा सिंह की वर्णन शैली में चित्रात्मक अभिव्यक्ति की क्षमता है.
उपन्यास का यह अंश पढ़िये…
… “मैं जानती थी तुम्हारी नजर कहाँ धरी है? मुझे क्या पड़ी है? बच्चों के लिए रख छोड़ा था बच्चों को भूख से बेहाल नहीं देखा जाता है. इस कारण रख छोड़ा था। वह बड़बड़ाती जा रही थी और कोठरी में खटर-पटर भी करती जा रही थी।
वह असहायता और निरूपता से ग्रस्त इंतजार कर रहा था। थोड़े विराम के बाद कमला कोठरी से बाहर आयी। वह अशांत, क्लेशरहित, दीन भाव से युक्त थी। उसने एकदम सहज तरीके से कड़े रामदीन को सौंप दिए। वह अच्छी तरह से जानती थी कि इस स्थिति के लिए उसका पति किसी तरह से भी दोषी नहीं है। यह सिर्फ दैवयोग ही है।
रामदीन ने जुताई की रकम अदा की और पिछला उधार चुकता करके फिर उधार किया। उसने खाद बीज के लिए भी यही व्यवस्था अपनाई। पिछला उधार चुकता किया और नया उधार किया। सबसे ज्वलंत समस्या मुंह बाये खड़ी थी, घर का खाना खर्चा का क्या होगा? समझ से परे था यह इन्तजाम.? बैंकों का कर्ज पहले से ही था उसे पिछले तीन सालों से चुका नहीं पाया था। नोटिस पे नोटिस आ रहे थे। ब्याज पर ब्याज लगकर खाता अलाभकारी हो चुका था। बैंक के कोई दया ममता तो होती नहीं है परन्तु अब क्या करें? सेठ साहूकार उनका ब्याज मूल से ज्यादा हो चुका है। एक बार खेत का एक टुकड़ा बेचकर उनके मोटे पेट को भोजन करा चुके हैं। मगर उनके अलावा कोई चारा तो नहीं है।
ससुरी खेती कब दगा दे जाये क्या पता….? चलते हैं, चिरौरी करते हैं, वे मानुष हैं, उनके दया ममता आ सकती है। अबकी बार खेत का एक टुकड़ा नहीं सारा का सारा खेत बेच कर ताँता ही समाप्त कर देंगे और सारा उधार निपटाकर शहर जाकर बस जायेंगे मेहनत-मजूरी करके दो वक्त की रोटी तो पा ही जायेंगे। कहते हैं कि शहर में कोई भूखा नहीं मरता । अच्छी लागत और भरपूर मेहनत ने रंग दिखाना शुरू कर दिया था। फसलें अच्छी तरह पनप और विकसित हो रही थी। निराशाएँ और हताशाएँ बहुत पीछे छूट गयी थीं। उम्मीदों पर, पर लग गए थे। उत्पादन-विक्रय के बाद होने वाली आमदनी का हिसाब काफी अच्छा बैठ रहा था। भावी आमदनी से आवश्यकताओं और अभिलाषाओं के पूर्ण होने की उम्मीद बेहतर होती जा रही थी। बिके हुए गाय-बैल वापस आने कि उम्मीद बंध रही थी।…
लोकभाषा का प्रयोग, समकालिक परिस्थितियों और घटनाओ का वर्णन है, इसलिये उपन्यास पाठक को बांधे रखता है, पठनीय है. उपन्यास की कहानी कोई बड़ा संदेश तो नहीं देती पर वर्तमान सामाजिक परिवेश का यथार्थ चित्रण करती है. मेरी आशा है कि यह उपन्यास स्त्री विमर्श की मुखर कृति के रूप में स्थान बनाने में सफल होगा.
चर्चाकार… विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’
समीक्षक, लेखक, व्यंगयकार
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