श्री अरुण श्रीवास्तव
(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आज से प्रस्तुत है आपका एक विचारणीयआलेख “किस्साये तालघाट…“।)
☆ आलेख # 65 – किस्साये तालघाट – भाग – 1 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆
तालघाट जगह का भी नाम था तो बैंक की शाखा भी
इसी नाम से रजिस्टर्ड थी.स्थान की विशेषता यही थी कि जब घाट समाप्त होता तो ताल से भरपूर नगर की सीमा शुरू हो जाती थी.ताल एक ही था पर नगर की तुलना में बहुत विशाल था.तालघाट में होने के बावजूद इस ताल में सिर्फ एक ही पक्का घाट था.इसे भी घाट कहते हैं और रास्ते की चढ़ाई भी घाट कहलाती है.प्रदेश के राजमार्ग के किनारे बसा था यह स्थान और इसकी एक विशेषता और भी थी कि यह नगर दो प्रदेशों की सीमा पर भी स्थित था.याने इस पार अटारी तो उस पार वाघा बार्डर जैसी भौगोलिकता से संपन्न था.एक प्रदेश को पारकर दूसरे राज्य में आ गये हैं,ये सड़क के गड्ढे बयान कर देते थे.जिनकी सरकार और सड़क अच्छी थी वहां के सीमावर्ती नागरिक भी खुद के प्रति श्रेष्ठि भाव और दूसरे राज्य के वासियों के प्रति हिकारत का भाव रखते थे.जबकि उन बेचारों का सिर्फ यही दुर्भाग्य था कि वो खस्ताहाल सड़क वाले राज्य के ईमानदार निवासी थे और उनके द्वारा दी जाने वाली टेक्स की रकम भी उनसे ज्यादा मोटी थी जो अच्छी सड़क वाले राज्य के टेक्स चोर नागरिक थे.तालघाट नगर का कल्चर दोनों राज्यों की गंगाजमुनी संस्कृति का अनूठा उदाहरण था.वहाँ रहने वाले यहाँ नौकरी के नाम पर रोज आते जाते थे और वेतन मिलने पर उसे खर्च करना तो अपने वाले राज्य के अधिकार क्षेत्र का विषय था.जो रोज नौकरी करने के नाम पर बस या ट्रेन से आना जाना करे,उसे सरकारी भाषा में अपडाऊनर कहा जाता है और कम से कम असुविधा झेले समय पर अपनी घर वापसी का सुखद एहसास पाना ही उसका दैनिक लक्ष्य या मंजिल मानी जाती है.इस जीवन की आपाधापी में उसकी राह में अनुशासन, अटेंडेंस, कार्यक्षमता, समर्पित आस्था नाम के असुर जरूर अड़चन बनकर सामने आते हैं पर वो तो तांगे का अश्व होता है जिसकी गति न्यूटन के नियमों से नहीं बल्कि जल्द से जल्द घरवापसी के हथकंडों से निर्धारित होती है.हर अपडाऊनर का यह मानना होता है कि उसके पांच घंटो का आउटपुट, उन स्थानीय लोगों के दस घंटे के बराबर होता है जो बॉस को देखकर अपनी दुकान सजाते हैं और बॉस के जाते ही अतिक्रमण धारियों के सदृश्य अपनी दुकान समेट कर गपशप,चायपानी में लग जाते हैं चूंकि यहाँ रहते हैं तो बैंक के अलावा कोई ऐसी जगह होती नहीं जहाँ शामें या रातें कटें तो उनका ठौरठिकाना बैंक की शाखा और चायपान के ठिये तक ही सीमित हो जाता है पर खुद को असली कर्मवीर समझने वाले अपडाऊनर्स के पास नौकरी में अपना काम निपटाने के अलावा और भी बहुत सी जिम्मेदारियां होती हैं जैसे सुबह ब्रम्ह मुहूर्त में बिस्तर छोड़ने की मजबूरी, ब्रम्हास्त्र की गति से बिना कुछ भूले तैयार होकर स्टेशन या बस के लिये मिलखा सिंह बनना,फिर रेल के डिब्बों में कभी बैठने की तो कभी खड़े होने की जगह ढूंढना और फिर कभी कभी चार कलात्मक श्रेष्ठता से संपन्न मित्रों के साथ बावन पत्तों की बाजी में रम जाना.ना यहाँ कोई पांडव होता है न कोई कौरव और न ही इस बाजी से कोई द्रौपदी अपमानित होती है पर इस रेलबाजी का अंत आने वाला स्टेशन ही करता है जब ये कौरव और पांडव रेल से उतरकर अपने अपने दफ्तर को प्रस्थान करते हैं.बस के अपडाउनर्स इस सुविधा से वंचित रहते हैं तो उन बेचारों के पास राजनीति पर बहस के अलावा मन बहलाने का कोई दूसरा साधन नहीं होता.इनमें कुछ धूमकेतु भी होते हैं जो इंतजार की घड़ियों को सिगरेट के कश में उड़ाते हैं.पर ये सभी अपडाउनर्स रूपी सज्जन अपने हॉकी के इस दैनिक मैच का फर्स्ट हॉफ ऑफिस पहुचकर हाजिरी देने,साथियों और बॉस से गुडमॉरनिंग करने पर ही पसमाप्त होना मानते हैं.बॉस अक्सर या बहुधा इनसे खुश नहीं रहते हैं पर इनकी याने अपडाउनर्स की नजरों से समझें तो यह पायेंगे कि इनके बॉस इनकी अपडाउन की अवस्था के कारण इनको ब्लेकमेल करते हैं.ये बात अलग है कि अपडाऊन की यह व्यवस्था इन्हें चतुर,चाकचौबंद, बहानेबाज,द्रुतगति धावक,एंटी-हरिश्चंद्र बना देती है.हर गुजरता दिन और अपडाउन करने वालों की बढ़ती संख्या इन्हें आत्मविश्वास और साहस की प्रबलता प्रदान करते जाती है.जब ये अल्पमत में होते हैं तो मितभाषी और बहुमत में होने पर दबंग भी बन जाते हैं.इन्हें कर्मवीर बनाना सिर्फ और सिर्फ शाखा प्रबंधक का ही उत्तरदायित्व होता है और यह उत्तरदायित्व ही सबसे विषम और चुनौतीपूर्ण होता है.कड़कता याने एंटीबायोटिकता से ज्यादा मनोवैज्ञानिकता याने होमियोपैथिक मीठी गोली ज्यादा प्रभावी होती है.
अपडाउनर्स की यात्रा जारी रहेगी.
© अरुण श्रीवास्तव
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≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈