सुश्री ऋता सिंह
(सुप्रतिष्ठित साहित्यकार सुश्री ऋता सिंह जी द्वारा ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए अपने यात्रा संस्मरणों पर आधारित आलेख श्रृंखला को स्नेह प्रतिसाद के लिए आभार। आप प्रत्येक मंगलवार, साप्ताहिक स्तम्भ -यायावर जगत के अंतर्गत सुश्री ऋता सिंह जी की यात्राओं के शिक्षाप्रद एवं रोचक संस्मरण आत्मसात कर सकेंगे। आपका यात्रा संस्मरण – मेरी डायरी के पन्ने से… गुरुद्वारों की मेरी अद्भुत यात्रा… का भाग दो – नांदेड़)
मेरी डायरी के पन्ने से… गुरुद्वारों की मेरी अद्भुत यात्रा – भाग दो – नांदेड़
(अगस्त 2014)
बीड़ जिले का एक छोटा सा शहर है, नाम है परलीवैजनाथ (परळीवैजनाथ)। इस शहर में BHEL का एक बड़ा विद्यालय है। मुझे इस विद्यालय में खेलों द्वारा भाषा सिखाने की विधि इस विषय से संबंधित वर्कशॉप लेने के लिए आमंत्रित किया गया था। कार्यक्रम पाँच दिन का था। एक अधिक दिन हाथ में रखकर रात की बस से मुझे छठवें दिन पुणे लौट आना था।
जाते समय रात के 7.30 बजे मैं स्लीपिंग वोल्वो बस में सवार हुई। रात भर का सफ़र था। सुबह 5.30 बजे बस परलीवैजनाथ पहुँचनेवाली थी। पुणे से परलीवैजनाथ का अंतर 372 कि.मी है। मैं आराम से ड्राइवर के पीछेवाली स्लीपिंग सीट में बैठ गई। बस चल पड़ी। यह जुलाई का अंतिम सप्ताह था। बाहर वर्षा हो रही थी।
हम कुछ पचास कि.मी. ही सफ़र कर पाए थे कि ज़ोर से एक झटका लगा। बस में सोए कुछ बच्चे झटका खाकर धम्म से बस की फ़र्श पर गिरे और ज़ोर से रोने लगे। बस डिवाइडर पर चढ़ गई थी। बस के दोनों ओर के ऑटोमेटिक दरवाज़े लॉक हो गए थे। खूब प्रयास के बाद जब दरवाजे नहीं खुले तो पीछे के एमरजेंसी द्वार से सबको नीचे उतारा गया।
मेरे लिए छलाँग मारकर नीचे उतरना किसी सर्कस से कम न था। वह दृश्य आज भी याद करने पर मेरे रोंगटे खड़े हो जाते हैं। मेरे हाथ पैर छिल गए पर अब पीछे मुड़कर देखना न था तो अन्य यात्रियों के साथ तेज़ बारिश में भीगती हुई अपना सामान लेकर मैं भी रास्ते के किनारे खड़ी रही। कहीं कोई शेड न था, हाई वे पर रोशनी तो होती नहीं तो अंधकार में ही ईश्वर को स्मरण करते हुए खड़ी रही।
थोड़ी देर में कुछ और वोल्वो बस आईं तो किसी को कहीं तो किसी को कहीं बिठा दिया गया। मुझे एक लालवाली एस.टी में बिठाया और कन्डक्टर ने कहा कि नगर में आपको स्लीपिंग कोच मिल जाएगी। इस बस की भी सारी सीटें भरी थीं।
कुछ घंटे दरवाज़े के पास वाली सीट पर बैठकर रात के कोई ग्यारह बजे नगर पहुँची तो वहाँ से फिर एक दूसरे वोल्वो में मुझे बिठा दिया गया और कहा कि शिरडी से फिर बस बदलनी पड़ेगी।
अब आगे बढ़ते रहने के अलावा कोई चारा न था। रात के एक बजे के करीब शिर्डी पहुँची तो वहाँ से परलीवैजनाथ जाने के लिए शेयरिंग में स्लीपिंग सीट मिली। मरता क्या न करता। एक बूढ़ी महिला के साथ कभी बैठकर तो कभी ढुलकी लेती हुई सुबह साढ़े सात बजे हम परलीवैजनाथ पहुँचे।
मुझे लेने के लिए एक शिक्षिका और दो शिक्षक आए हुए थे। शहर में एक छोटा रेल्वे स्टेशन है। रेल्वे स्टेशन के बाहर ही एक होटल में रहने की व्यवस्था थी। थोड़ा फ्रेश होकर दस बजे से वर्कशॉप प्रारंभ हुआ। न जाने कौन-सी शक्ति आ गई थी जो सारे दर्द भूल गई और जोश के साथ काम प्रारंभ किया।
छोटे शहर के सीधे -साधे सरल लोग, आनंद आया उन सबके साथ पाँच दिन वर्कशॉप लेते हुए। सबके साथ नीचे फर्श पर बैठकर महाराष्ट्रीय भोजन करते हुए आनंद आया। सत्तर शिक्षक थे। उन सबमें आत्मीयता थी, कोई दिखावा नहीं। मैं भी सबके साथ घुलमिल गई।
पाँचवे दिन कार्यक्रम समाप्त हुआ। विद्यालय ने धनराशि के चेक के साथ अनपेक्षित कई प्रकार के अन्य उपहार भी दिए, यह उनका बड़प्पन था। वे वर्कशॉप से अत्यंत प्रसन्न थे तथा छह माह बाद पुनः आने का लिखित आमंत्रण भी दिया।
वर्कशॉप के दौरान ही मैंने यों ही कहा था कि मुझे नांदेड जाने की बड़ी इच्छा है और लो! उसी दिन शाम को एक इनोवा गाड़ी और दो शिक्षक नांदेड जाने के लिए तैयारी करके आए।
हमें 105 कि.मी का फासला तय करना था। रास्ता भी खराब था। हम शाम को साढ़े चार बजे रवाना हुए और तीन घंटे में नांदेड पहुँचे।
यहाँ का परिसर अमृतसर के गुरुद्वारे से भी बड़ा है। स्वच्छ तथा आकर्षक गुरुद्वारा! सब कुछ सफेद संगमरमर का बना हुआ। परिसर में प्रवेश करते ही साथ एक अद्भुत शांति और आनंद का अनुभव हुआ।
इस गुरुद्वारे को हज़ूर साहब सचखंड कहा जाता है। यह भारत के मुख्य पाँच गुरुद्वारों में से एक है। यह गोदावरी नदी के किनारे बसा हुआ है।
1708 में सिक्खों के अंतिम तथा दसवें गुरु गुरु गोविंद सिंह जी अपने कुछ अनुयायियों के साथ पंजाब से नांदेड सिक्ख धर्म के प्रचार -प्रसार के लिए आए थे। वे यहीं पर कुछ काल तक रहे। कहा जाता है कि कुछ धार्मिक कारणों से नवाब वजीर शाह ने गुरु गोविंद सिंह की हत्या करवाने के लिए हमला करने दो आदमियों को भेजा था। एक हमलावर की गर्दन तो गुरु गोविन्द सिंह जी ने ही अपनी तलवार से छाँट दी और दूसरे को अनुयायियों ने मारा। 7 अक्टूबर 1708 गुरुगोविंद सिंह जी ने देह त्याग किया था। उनके साथ उनके प्रिय घोड़े ने भी अपनी जान दे दी थी। घोड़े का नाम दिलबाग था।
अपनी मृत्यु से पूर्व उन्होंने अपने अनुयायियों से कहा था कि वे अब किसी उत्तराधिकार को गुरु चुनने के बजाए अपने पवित्र धर्म ग्रंथ को ही गुरु मानें। तब से ग्रंथ साहिब को गुरु ग्रंथ साहिब कहा जाने लगा। आपने ही इस शहर को अवचल नगर नाम दिया था।
आज जिस स्थान पर गुरुद्वारा बनाया गया है उस स्थान को सच खंड कहा जाता है। इसी स्थान पर गुरु गोविन्द सिंह जी की आत्मा पवित्र ज्योत में विलीन हो गई थी।
गुरुद्वारे का भीतरी कमरा अंगीठा साहिब कहलाता है। इसी स्थान पर गुरु गोविन्द सिंह जी का दाह संस्कार किया गया था। सौ साल से भी अधिक समय बीतने के बाद 1830 में पंजाब के प्रसिद्ध राजा रणजीत सिंह जी ने इस गुरुद्वारे का निर्माण करवाया था।
यह केवल धार्मिक स्थल ही नहीं अपितु हर भारतीय के लिए एक ऐतिहासिक दर्शनीय स्थल भी है।
मराठी भाषा के तीन प्रसिद्ध कवि विष्णुपंत सेसा, रघुनाथ सेसा और वामन पंडित का जन्म भी इसी शहर में हुआ था।
महाराष्ट्र पंजाब से बहुत दूर है, इसलिए अपनी मृत्यु से पूर्व गुरुगोविंद सिंह जी ने एक अनुयायी संतोक सिंह को छोड़कर बाकी सभी को पंजाब लौट जाने के लिए कहा था और संतोक सिंह को लंगर चलाते रहने की ज़िम्मेदारी सौंपी थी। पर उनके अनुयायी पंजाब न लौटे और नांदेड़ में ही बस गए।
अनुयायियों ने अपने गुरु की याद में एक छोटा- सा मंदिर बनाया था जो सच खंड कहलाया। आज यहाँ बड़ी संख्या में सिक्ख समुदाय के लोग इस शहर में रहते हैं। प्रति वर्ष गुरु गोविन्द सिंह की जयंती मनाई जाती है। लाखों की संख्या में सभी भक्त आते हैं। यह शहर सिक्ख संप्रदायों का महत्त्वपूर्ण तीर्थ स्थान है।
गुरुगोविंद सिंह जी अपने घावों के ठीक न हो पाने की वजह से मृत्यु के ग्रास बनें थे।
1666 में जन्में इस महान गुरु ने 41 वर्ष की आयु तक मुगलों द्वारा हिंदुओं पर किए गए अत्याचार का सामना किया। उनके पिता गुरु तेगबहादुर सिंह (जो नौवें गुरु भी थे) और उनके चार पुत्र भी औरंगज़ेब के हाथों कष्ट पाकर शहीद हो गए थे। यही कारण था कि उन्होंने खालसा पंथ का निर्माण किया। इनका काम था मुग़लों के विरुद्ध हथियार उठाना। सभी सिक्ख संप्रदाय जो खालसापंथी थे वे कट् टरता से सभी धार्मिक नियमों का पालन करते थे। यहाँ आज भी भक्तों के माथे पर चंदन का टीका लगाए जाने की प्रथा है।
मंदिर के भीतरी भाग के एक कमरे में गुरुगोविंद सिंह जी के अस्त्र -शस्त्र तथा उनके द्वारा उपयोग में लाई गई वस्तुएँ हैं। यहाँ किसी का भी प्रवेश निषिद्ध है।
हम मंदिर के परिसर में पहुँचे तो जब अपने जूते चप्पल रखने एक निर्धारित स्टैंड पर गए तो एक सिक्ख सज्जन ने न, न कहने पर भी हमारे जूते -चप्पलों को अपने हाथ से उठाकर शेल्फ पर रखा और हमें टोकन दिया।
हम मंदिर में माथा टेककर जब लौट रहे थे तो उस समय रात के कुछ दस बजे होंगे। वे सज्जन जो जूते रख रहे थे अब मंदिर की ओर जा रहे थे। हमें देखकर सतश्रीआकाल कहा और मुस्कराहट के साथ आगे बढ़ गए। साथियों से पूछने पर पता चला कि वे नांदेड़ शहर के जाने-माने व्यापारी थे, जिनकी शहर में कई दुकानें थीं। वे प्रतिदिन सुबह सात से दस और शाम को सात से दस कार सेवा के लिए आते हैं। शायद यही सेवा की भावना उन्हें अहंकार से दूर रखती है। मिट्टी से जोड़े रखती है।
यहाँ रोज़ लंगर चलता है। रोटी, सब्जी,चावल कढ़ी, छोले ,राजमा आदि नियमित बनाए जाते हैं। लोग अपने समयानुसार आकर कार सेवा करते हैं। कोई सब्जी काटता है तो कोई रोटियाँ सेंक देता है। हज़ारों लोग रोज भोजन करने आते हैं। हज़ारों हाथ सेवाजुट भी रहते हैं।
यहाँ तस्वीर खींचने की मनाही है।
गुरुद्वारा एकमात्र ऐसा स्थान है जहाँ हर जाति धर्म, वर्ण का व्यक्ति दर्शन के लिए तथा लंगर का प्रसाद पाने के लिए जा सकता है।
रात के समय संगमरमर से बना विशाल मंदिर बहुत ही आकर्षक दिखाई दे रहा था।
मैं भावविभोर हो उठी। अपनी आँखों पर विश्वास ही नहीं हो रहा था कि मैं उस पवित्र भूमि पर खड़ी थी जहाँ गुरु गोविंद सिंह जी का पार्थिव शरीर कभी रखा गया था। यह मेरा सौभाग्य ही था जो मैंने चाहा और मुझे मिला। शायद यही कारण था कि बस से उतरते समय जो चोटें लगी थीं वे सब ठीक हो गईं और सफल कार्यक्रम के बाद मैं दर्शन के लिए भी पहुँच गई।
रात को डेढ़ बजे हम वहाँ से रवाना हुए और प्रातः पाँच बजे होटल पहुँच गई।
आज जब अपनी इस अद्भुत यात्रा की बात सोचती हूँ तो यह विश्वास करने को विवश होती हूँ कि हमें ऐसी जगहों से बुलावा आता है और पहुँचने के मार्ग प्रशस्त हो जाते हैं जहाँ जाने का कभी ख्याल भी नहीं करते हैं हम। पर प्रभु के बुलावे की महिमा ही अद्भुत है।
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