डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपका एक अतिसुन्दर कहानी  बाकी सफर। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 192 ☆

☆ कथा-कहानी ☆  बाकी सफर

रोज़ सुबह उठ कर उमाशंकर देखते हैं, सामने पटेल की चाय की भठ्ठी चालू हो गयी है। दूकान में काम करने वाले लड़के ऊँघते ऊँघते भट्ठी के आसपास मंडराते दिखते हैं और पटेल चिल्ला चिल्ला कर उनकी नींद भगाता नज़र आता है। तड़के से ही दो चार ग्राहक चाय की तलब में दूकान के सामने पड़ी बेंचों पर डट जाते हैं।

सड़क के इस पार उमाशंकर का मकान है और उस पार पटेल की दूकान है। उमाशंकर ऊपर रहते हैं इसलिए बालकनी से दूकान का दृश्य स्पष्ट दिखता है। उमाशंकर की पत्नी दिवंगत हुईं, बहू नौकरी पर जाती है, इसलिए कभी कोई मिलने वाला आ जाए तो बालकनी में खड़े होकर पटेल को आवाज़ देकर उँगलियाँ दिखा देते हैं और थोड़ी देर में दूकान से कोई लड़का उँगलियों के हिसाब से चाय लेकर आ जाता है।

करीब चालीस साल की सरकारी नौकरी के बाद उमाशंकर रिटायरमेंट को प्राप्त हो फुरसत की ज़िन्दगी बिता रहे हैं। मँझला बेटा रेवाशंकर साथ रहता है। दो बेटे शहर से बाहर हैं।

उमाशंकर भावुक और भले आदमी हैं। देश में गरीब असहाय बच्चों की दुर्दशा देखकर उन्हें बहुत तकलीफ होती है। समाचार-पत्रों में पत्र लिखकर वे अपनी भावनाएँ व्यक्त करते रहते हैं।
सड़क के किनारे कचरे के ढेरों पर झुके, नंगे पाँव, बीमारियों और विपत्तियों को आमंत्रित करते बच्चों को देखकर वे बहुत व्यथित होते हैं। सारे निज़ाम पर वह खूब दाँत पीसते हैं।

एक बार एक दस बारह साल का लड़का उन्हें भर दोपहर, चलती सड़क के किनारे, कचरे का थैला सिर के नीचे रखे, शायद थकान के मारे सोता हुआ दिखा। उस वक्त उन्हें लगा धरती फट जाए और उन जैसे सफेदपोशों का पूरा कुनबा उसमें समा जाए। खयाल आया कि कहाँ है वह संविधान का निर्देश जो चौदह साल तक की उम्र के बच्चों को निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा की ताकीद करता है?

कोई बच्चों की भलाई या मदद के लिए काम करता है तो जानकर उमाशंकर का मन उस व्यक्ति के प्रति कृतज्ञता से भर जाता है। सवेरे पूजा के लिए बैठते हैं तो भगवान की मूर्ति से अक्सर कहते हैं— ‘तुमने मेरे मन में लौ तो जगायी, लेकिन मद्धी मद्धी। जुनून दिया होता तो मैं भी कुछ कर गुज़रता। जिससे भी कराना हो, कराओ। काम होना चाहिए।’

तीन-चार दिन से उन्हें पटेल की दुकान में एक नया लड़का दिखता है। इस धंधे में वह रँगरूट ही लगता है। सवेरे उठता है तो बड़ी देर तक उकड़ूँ बैठा दूसरों को काम करते देखता रहता है। लगता है सेठ भी उसके ज़्यादा पीछे नहीं पड़ता। माथे पर बाल बिखेरे वह बड़ी देर तक उनींदा बैठा रहता है। काम भी धीरे-धीरे करता दिखता है। पटेल लड़कों का मनोविज्ञान जानता है। उन्हें दूकान के वातावरण में रसने-बसने के लिए चार छः दिन का टाइम देता है।

दो दिन बाद उमाशंकर ने ऊपर से चाय के लिए इशारा किया तो संयोग से वही नया लड़का लेकर आया। धीरे-धीरे लटपट चलता सीढ़ियाँ चढ़कर वह ऊपर पहुँच गया। उमाशंकर ने देखा, लड़के की उम्र दस बारह साल के करीब होगी। चेहरा सलोना और भोला था। अभी शहर की व्यवहारिकता की झाँईं उस पर नहीं उतरी थी। घुँघराले से बालों के बीच उसका चेहरा मोहित करता था। हाथ-पाँव पर भी अभी भट्ठी की तपिश से पैदा हुई सख़्ती और कालिख नहीं दिखती थी।

उमाशंकर ने उसे चार बिस्कुट दिये, कहा, ‘ले, खा लेना।’ उसने ले लिये, फिर पूछने पर अपना नाम बताया, ‘नन्दू’। बिस्कुट जेब में रखकर वह सीढ़ी उतरने लगा। उमाशंकर ने उसकी लटपट चाल देखकर पीछे से आवाज़ दी— ‘सँभलकर उतरना। लुढ़क मत जाना।’ प्यार की आँच लड़के तक पहुँची। वह पीछे देख कर हँसा, फिर धीरे-धीरे उतर गया।

फिर अक्सर नन्दू चाय लेकर आने लगा। लगता था जैसे वह जानबूझकर अपनी ड्यूटी वहाँ चाय लाने के लिए लगवाता हो।

दूसरी बार आया तो उमाशंकर ने उसे थोड़ी देर बैठा लिया, पूछा, ‘कहाँ के हो?’

नन्दू बोला, ‘सिंहपुर के। इलाहाबाद के पास है।’

उमाशंकर ने पूछा, ‘यहाँ कैसे पहुँच गया?’

नन्दू आँखें झुका कर बोला, ‘पापा अम्माँ को बहुत मारता था। मुझे और मेरी छोटी बहन गुड़िया को भी मारता था। जब वह दारू पी कर आता था तब हम लोगों को बहुत डर लगता था। उस दिन उसने अम्माँ को मारा तो मुझे बहुत गुस्सा आ गया। मैंने उसे हाथ में जोर से काट लिया। फिर डर के मारे जो भागा तो सीधा स्टेसन पहुँचा। वहाँ जो गाड़ी खड़ी थी उसी में छिप कर बैठ गया। यहाँ उतर गया।’

उमाशंकर ने पूछा, ‘इस तरह यहाँ कब तक रहेगा? घर वापस नहीं जाएगा?’

नन्दू बोला, ‘अभी तो सोच कर बहुत डर लगता है। पापा बहुत मारेगा। बाद में सोचेंगे।’

उमाशंकर ने पूछा, ‘घर की याद नहीं आती?’

नन्दू का मुँह लटक गया, आँखों में पानी की रेख खिंच गयी, बोला, ‘अम्माँ और गुड़िया की बहुत याद आती है।’

फिर उसने गिलास उठाये, बोला, ‘देर हो गयी तो सेठ ऊटपटाँग बोलेगा। फिर आऊँगा।’

फिर जब उसकी मर्जी होती आ जाता। हफ्ते में एक दिन की उसे छुट्टी मिलती थी, उस दिन आकर उमाशंकर के साथ खूब बतयाता था। एक दिन उमाशंकर ने पूछा, ‘पढ़ा लिखा नहीं?’

नन्दू बोला, ‘तीसरी तक पढ़ा था, फिर मन नहीं लगा। मास्टर जी साँटी से बहुत मारते थे। थोड़ा सा हल्ला किया नहीं कि सटासट पड़ती थी।’

फिर उसे कुछ याद आ गया। हँसते हुए बोला, ‘एक बार हमारी क्लास के पवन को जोर से साँटी मारी तो वह ऐसे पड़ गया जैसे बेहोस हो गया हो। बड़ा नाटकबाज था। मुँह से फसूकर छोड़ दिया। मास्टर जी की हालत तो डर के मारे खराब हो गयी। जल्दी-जल्दी उसके मुँह पर पानी छोड़ा तब उसने आँखेंं खोलीं। फिर हलवाई की दुकान से एक पाव जलेबी मँगा कर उसे खिलायी। बाद में पवन खूब हँसा।’

उमाशंकर को भी खूब मज़ा आया। नन्दू अब मौका मिलते ही उनके पास बैठक जमा लेता था। उसकी छठी इन्द्रिय ने जान लिया था कि अटक-बूझ में यह भला आदमी उसे अपनी छाया दे सकता है।

लेकिन नन्दू की यह बार-बार की उपस्थिति उमाशंकर के परिचितों के कान खड़े कर रही थी। जब वह आता-जाता तो आसपास के लोग उसे घूर कर देखते। यह चायवाला आवारा लड़का उमाशंकर से क्यों चिपका रहता है?

एक दिन रेवाशंकर ने उनसे कह ही दिया, ‘पापाजी, यह चायवाला लड़का क्यों हमेशा आपके पास घुसा रहता है?’

उमाशंकर हँसकर बोले, ‘कौन? नन्दू? वह बहुत अच्छा लड़का है। मुझे उसकी बातें सुनकर बड़ा आनन्द आता है।’

रेवाशंकर बोला, ‘लेकिन ऐसे लड़कों को मुँह लगाना ठीक नहीं। ये अच्छे लड़के नहीं होते।’

उमाशंकर ने जवाब दिया, ‘अच्छा बुरा कोई जन्म से नहीं होता। परिस्थितियाँ उसे अच्छा बुरा बनाती हैं। मुझे तो यह अपराध-बोध रहता है कि हमारे देश की भावी पीढ़ी इस तरह नष्ट हो रही है और हम पढ़े लिखे लोग आँख मूँद कर अपने स्वार्थ-साधन में लगे हैं। कभी न कभी हमें इन कर्मों का फल भोगना पड़ेगा। तब यही लड़के पत्थर मार मार कर हमारा जीना हराम कर देंगे। लेकिन शायद तब तक बहुत देर हो चुकी होगी।’ 

रेवाशंकर बोला, ‘प्रारब्ध की बात है। सब अपना प्रारब्ध भोगते हैं।’

उमाशंकर उत्तेजित होकर बोले, ‘यह पलायनवाद है। जिनका भाग्य जन्म से पहले ही निश्चित हो जाता हो उनका प्रारब्ध क्या होगा? जिस घर में गरीबी है, पढ़ाई-लिखाई का वातावरण नहीं है, कलह है, वहाँ बच्चे का प्रारब्ध तो पूर्वज्ञात है। कोई विरला अपवाद निकल सकता है।’

रेवाशंकर अप्रसन्न होकर बोला, ‘मैं आप से बहस करने लायक नहीं हूं, लेकिन इतना ही कह सकता हूँ कि ऐसे लड़कों की संगत आपको शोभा नहीं देती।’

उमाशंकर हँसकर बोले, ‘भैया, मैंने तुम सभी भाइयों को पढ़ा लिखा कर अपने पैरों पर खड़े होने लायक बना दिया। अब मेरा कार्यक्रम सिर्फ खाने, पीने और सोने का है या इधर-उधर गपबाज़ी करने का, जो एक तरह से निरर्थक है। मैं सोचता हूँ ऐसा कुछ करूँ जिससे जीवन में कुछ दूर तक ऐसा लगे कि मेरा जीवन उपयोगी है। मैं अपनी पेंशन से एक दो लड़कों की ज़िन्दगी सुधारने की कोशिश कर सकता हूँ। परिणाम ऊपर वाले के हाथ में है।’

रेवाशंकर कुछ नाराज़ी के स्वर में  ‘जैसा आप ठीक समझें। मैं क्या कह सकता हूँ?’ कहकर चला गया।’

नन्दू आसपास वालों का रुख भाँप कर उमाशंकर के पास आने में झिझकने लगा था। एक दिन उमाशंकर से बोला, ‘बाबूजी, यहाँ के लोगों को मेरा आपके पास आना अच्छा नहीं लगता। गुस्से से मेरी तरफ देखते हैं। मैं आपके पास नहीं आया करूँगा।’ फिर करुण चेहरा बनाकर बोला, ‘आपके पास आकर बहुत अच्छा लगता है, इसलिए आता हूँ।’

उमाशंकर उसकी पीठ पर हाथ रख कर बोले, ‘तुम इन बातों की फिक्र मत करो। जो जैसे देखता है, देखने दो। यह महीना सेठ के यहाँ पूरा करो, फिर तुम्हें स्कूल में भर्ती कराना है। घर में डंडा लेकर मैं तुम्हें पढ़ाऊँगा। तुम्हें आदमी बनाना है।’

सुनकर नन्दू हँसते-हँसते लोटपोट हो गया। बोला, ‘तो क्या मैं अभी जानवर हूँ? मेरे पूँछ कहाँ है?’

उमाशंकर भी हँसे,बोले, ‘हाँ, तू बिना पूँछ का जानवर है। तुझे पूरा इंसान बनाऊँगा। पढ़ाई से आदमी पूरा इंसान बनता है।’

उस दिन नन्दू सोया तो बड़ी मीठी नींद आयी। सपने में दिखी उसकी तरफ बाँहें फैलाती अम्माँ और हाथ बढ़ा कर पुकारती उसकी नन्हीं बहन गुड़िया, लेकिन आज उन्हें देखकर उसका मन भारी नहीं हुआ।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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