सुश्री ऋता सिंह
(सुप्रतिष्ठित साहित्यकार सुश्री ऋता सिंह जी द्वारा ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए अपने यात्रा संस्मरणों पर आधारित आलेख श्रृंखला को स्नेह प्रतिसाद के लिए आभार। आप प्रत्येक मंगलवार, साप्ताहिक स्तम्भ -यायावर जगत के अंतर्गत सुश्री ऋता सिंह जी की यात्राओं के शिक्षाप्रद एवं रोचक संस्मरण आत्मसात कर सकेंगे। इस श्रृंखला में आज प्रस्तुत है आपका यात्रा संस्मरण – मेरी डायरी के पन्ने से…गुरुद्वारों की मेरी अद्भुत यात्रा… का भाग चार – )
मेरी डायरी के पन्ने से… गुरुद्वारों की मेरी अद्भुत यात्रा – भाग ४ – पौंटा साहब
(वर्ष 1994)
अपने जीवन के कुछ वर्ष चंडीगढ़ शहर में रहने को मिले। यह हमारे परिवार के लिए सौभाग्य की बात थी क्योंकि यह न केवल एक सुंदर,सजा हुआ शहर है बल्कि हमें कंपनी की ओर से कई प्रकार की सुविधाएँ भी उपलब्ध थीं।
बर्फ पड़ने की खबर मिलते ही हम सपरिवार ड्राइवर को साथ लेकर शिमला के लिए निकल पड़ते थे। चूँकि हिमाचल की सड़कें पहाड़ी हैं हम जैसे लोगों के लिए वहाँ गाड़ी चला पाना संभव ही नहीं होता। कई होटल भी हैं तो रहने की भी अच्छी व्यवस्था हमेशा ही होती रही। संभवतः यही कारण है कि हिमाचल का अधिकांश दर्शननीय स्थान देखने का हमें सौभाग्य मिला।
अब स्पिति हमारे बकेटलिस्ट में है!
हम सभी को श्वेतिमा से लगाव है अतः श्वेत बर्फ से ढकी चोटियाँ हमें मानो पुकारती थीं और हम अवसर मिलते ही रवाना हो जाते थे।
चंडीगढ़ के निवासी ऐसे ट्रिप को अक्सर शिवालिक ट्रिप नाम देते हैं क्योंकि यह शिवालिक रेंज के अंतर्गत पड़ता है।
शिमला, कसौली, कुफ्री,चैल, तत्तापानी कालका,सोलन, परवानु आदि सभी स्थानों के दर्शन का भरपूर हमने आनंद लिया।
इस वर्ष हम कुल्लू मनाली के लिए रवाना हुए। चंडीगढ़ से 120 कि.मी. की दूरी पर डिस्ट्रिक्ट सिरमौर है। यहाँ एक प्रसिद्ध गुरुद्वारा है जिसका नाम है पौंटासाहब। हमने सबसे पहले यहीं अपना पहला पड़ाव डाला। यद्यपि दूरी 120 किलोमीटर की ही थी पर फरवरी के महीने में अभी भी कड़ाके की ठंडी थी, सुबह ओस और धुँध के कारण गाड़ी शीघ्रता से आगे नहीं बढ़ पा रही थी। रास्ते भी घुमावदार थे। अँधेरा भी जल्दी ही हो जाने के कारण हमने उस रात वहीं रुकने का मन बनाया।
पौंटा साहब का असली नाम था पाँव टिका। गुरु गोविन्द सिंह जी एक समय इस स्थान पर अपने घोड़े पर सवार होकर अपनी सेना के साथ यहाँ उतरे थे। उन दिनों वे सिक्ख धर्म का प्रचार कर रहे थे। मुगलों द्वारा भारी मात्रा में धर्म परिवर्तन ने ज़ोर भी पकड़ रखा था। ऐसे समय अपने देशवासियों को एकत्रित करना और समाज की सुरक्षा के लिए तैयार रहना उस समय के देशवासियों की बड़ी ज़िम्मेदारी थी। गुरु गोविंद सिंह जी जो सिक्ख सम्प्रदाय के दसवें गुरु थे, इस तरह घूम-घूमकर लोगों को जागरूक करने और सिक्ख धर्म का प्रचार करने निकलते थे।
गुरु गोविंद सिंह जी कहीं भी अधिक समय तक नहीं रुकते थे। पर इस स्थान पर वे चार वर्ष से अधिक समय तक रुके रहे। जिस कारण इस स्थान को पाँव टिका कहा गया। अर्थात गुरु के पाँव अधिक समय तक टिक गए। इसका रूप बदला और यह पौंटिका कहलाया। फिर समय के चलते इसका नामकरण हुआ और यह पौंटासाहब कहलाया।
उन दिनों सिरमौर के राजा मेदिनी प्रकाश थे। वे सिक्ख समुदाय के साथ एक मित्रता का हाथ बढ़ाना चाहते थे। उन्होंने ही गुरुगोविंद सिंह जी को सिरमौर में आने का आमंत्रण दिया था।
गुरुगोविंद सिंह के साथ उनकी बड़ी फौज भी हमेशा साथ चलती थी। सभी के रहने के लिए एक उत्तम स्थान आवश्यक था। राजा मेदिनी प्रकाश ने विशाल स्थान घेरकर एक सुरक्षित किले की तरह इस स्थान का निर्माण कराया, साथ ही भीतर एक विशाल गुरुद्वारा भी बनवाया। यमुना के तट पर बसा यह गुरुद्वारा आज जग प्रसिद्ध है।
यह स्थान न केवल सिक्ख सम्प्रदाय का धार्मिक स्थल है बल्कि इस स्थान का ऐतिहासिक महत्त्व भी है। यहीं पर लंबे अंतराल तक रहते हुए गुरु गोविन्द सिंह जी ने दशम ग्रंथ की रचना की थी। उनका पुत्र अजीत सिंह का जन्म भी यहीं हुआ था।
यहाँ सोने की एक पालकी है जिसे भक्तों ने गुरुद्वारे को उपहार स्वरूप में दिया था।
गुरुद्वारे के भीतर दो मुख्य स्थान हैं जिन्हें तलब असथान और दस्तर असथान कहते हैं। असथान का अर्थ है स्थान। तलब असथान में कार्यकर्ताओं को तनख्वाह बाँटी जाती थी। दस्तर असथान में पगड़ी बाँधने की रस्म अदा की जाती थी।
गुरुद्वारे के पास ही माता यमुना का मंदिर स्थापित है। यहाँ एक बड़ा हॉल है जहाँ कवि सम्मेलन आयोजित किया जाता था। इसी स्थान पर गुरु गोविंद सिंह जी के रहते हुए कविता लेखन की स्पर्धा का आयोजन भी किया जाता था। यहाँ एक संग्रहालय भी है जिसमें कई पुरातन वस्तुएँ रखी गई हैं। गुरुगोविंद सिंह जी की कलम भी यहाँ देख सकते हैं। उनके द्वारा उपयोग में लाई गई कई वस्तुएँ यहाँ देखने को मिलेंगी।
यहाँ बड़ी संख्या में न केवल सिक्ख आते हैं बल्कि अन्य पर्यटक भी दर्शन के लिए आते रहते हैं। यहाँ आकर एक बात बहुत स्पष्ट समझ में आती है कि ईश्वर एक है, एक ओंकार। बड़ी मात्रा में लंगर की यहाँ सदा व्यवस्था रहती है। सब प्रकार के लोग,सब जाति के,वर्ग के लोग एक साथ बैठकर लंगर में प्रसाद का आनंद लेते हैं। यहाँ दिन भर बड़ी संख्या में लोगों की भीड़ रहती है।
यमुना के तट पर होने के कारण प्रकृति का सुंदर दृश्य सब तरफ देखने को मिलता है।
आज इस शहर में कई प्रकार के उद्योग प्रारंभ किए गए हैं। रहने के लिए कई बजेट होटल भी उपलब्ध है।
पौंटासाहब कुल्लू से 360 किमी की दूरी पर है। रास्ते में अगर आप रुकते हुए ढाबों के भोजन का आनंद लेते चलें तो दर्शन करने के लिए भी पर्यटक यहाँ रुकते जाते हैं। रास्ते में आपको शॉल बनने के छोटे- छोटे कुटीर उद्योग करते लोग मिल जाएँगे।
यहाँ के लोगों का स्वभाव मिलनसार है। वे पर्यटकों की अच्छी देखभाल और आतिथ्य करते हैं। उनका स्वभाव भी सरल ही होता है। आपको यहाँ अधिकतर लोग रास्ते के किनारे उकड़ूँ बैठकर बतियाते दिखाई देंगे। सभी फुर्सत में दिखते हैं। शहरों – सी भागदौड़ यहाँ नहीं दिखती। इनके छोटे- बड़े पत्थर के घर आकर्षक दिखाई देते हैं। हर घर में खूब लकड़ियाँ स्टॉक करके रखी जाती हैं। इसका उपयोग ईंधन के रूप में होता है। ठंडी का मौसम लंबे समय तक चलने के कारण वे लकड़ियाँ जमा करते रहते हैं।
यहाँ के लोग भात तो खाते ही हैं साथ में कमलगट्टे का यहाँ प्रचुर मात्रा में उपयोग होता है। आप जैसे – जैसे गाँवों की पतली सड़को से गुजरेंगे आपको हींग के पौधों की खेती दिखाई देगी। जो हाल ही में प्रारंभ की गई है।
पौंटासाहब का दर्शन करके हम रोहतांग पास तक पहुँचे। वहाँ एक खास बात देखने को मिली कि ऊपर चलने से पहले ही वे पर्यटकों के हाथ में कपड़े की थैली पकड़ाते हैं ताकि उनके पर्यावरण की रक्षा हो सके और कचरा न फेंके जाएँ। यह एक बहुत बड़ी बात थी जो समय से बहुत पहले ही देखने को मिली। यह सतर्कता अभी चंडीगढ़ में भी नहीं थी।
हमारे परिवार का यह सौभाग्य ही रहा कि हमें दूसरी बार पौंटासाहब गुरुद्वारे का दर्शन करने का अवसर मिला। इस बार हम देहरादून से वहाँ पहुँचे थे। देहरादून से पौंटासाहब पचास कि.मी की दूरी पर स्थित है।
यह नानक साहब की असीम कृपा है कि हमें भारत के मुख्य गुरुद्वारों के दर्शन का सौभाग्य मिलता ही रहा है।
वाहे गुरु, वाहे गुरु बोल खालसा
तेरा हीरा जन्म अनमोल खालसा
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