श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’
(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना “क्यों दाता बनें विधाता…?”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)
☆ क्यों दाता बनें विधाता…? ☆
प्रचार- प्रसार के माध्यमों से लोक लुभावन सपने दिखाना तो एक हद तक सही हो सकता है, किंतु मुफ्त में सारी सुविधाओं को देने से कामचोरी की आदत पड़ जाती है। जो आर्थिक रूप से कमजोर हैं, अशक्त हैं उन्हें मजबूत करने के प्रयास हों। पर जाति, धर्म, अल्पसंख्यक के नाम पर समाज को विभाजित करके सुविधाओं का आरक्षण देना समाज को जड़ से कमजोर करने की दिशा में उठाया गया कदम साबित हो रहा है।
जब राष्ट्रवाद की परिकल्पना साकार होती है तो व्यक्ति हर प्रश्नों से ऊपर उठकर अपना कर्तव्य निभाने की ओर चल देता है। हर वर्ग ने जाति, धर्म, अमीरी- गरीबी से ऊपर उठ केवल देश हित को सर्वोपरि माना है। कहा भी गया है – जननी जन्मभूमिश्चय स्वर्गादपि गरियसी अर्थात जननी और जन्मभूमि स्वर्ग से भी बढ़कर होती है।
जो भरा नहीं है भावों से, बहती जिसमें रसधार नहीं।
हृदय नहीं वह पत्थर है, जिसमें स्वदेश का प्यार नहीं। ।
राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त जी की ये पंक्तियाँ सबका मार्गदर्शन करती हैं। क्या अच्छा नहीं होगा कि सत्ता को पाने के लिए दाता बना भाग्य विधाता की सोच से ऊपर उठकर हम कार्य करें। जनमानस को सचेत होकर अपने दायित्वों का निर्वाहन करना होगा तभी बिड़गी चाल पर नियंत्रण रखा जा सकेगा।
© श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’
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