डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपकी एक सार्थक व्यंग्य ‘एक इज़्ज़तदार आदमी’। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 203 ☆
☆ व्यंग्य ☆ एक इज़्ज़तदार आदमी
अंग्रेजी भाषा कई लोगों का कल्याण करती है। अंग्रेजी भाषा की बदौलत ही धनीराम वर्मा मिस्टर डी.आर. वर्मा बन जाते हैं। डी.आर. धनीराम, देशराज, डल्लाराम, धृतराष्ट्र सबको बराबर कर देता है। हिन्दी ज़्यादा से ज़्यादा धनीराम वर्मा को ध.रा. वर्मा बना सकती है, लेकिन डी.आर. में जो रोब है वह भला ध.रा. में कहाँ?

धनीराम वर्मा मेरे ऑफिस में छोटा अधिकारी है। अपनी पोज़ीशन और पहनावे के बारे में वह बेहद सजग है। बिना टाई लगाये वह दफ्तर में पाँव नहीं रखता। गर्मी के दिनों में टाई उसके गले की फाँस बन जाती है, लेकिन वह टाई ज़रूर बाँधता है।

टाइयों के मामले में उसकी रुचि घटिया है। उसकी सारी टाइयाँ भद्दे आकार और रंग वाली, मामूली कपड़ों के टुकड़ों जैसी हैं, लेकिन वह मरी छिपकली की तरह उन्हें छाती पर बैठाये रहता है।

बात होने पर वह अपनी स्थिति समझाता है। कहता है, ‘भई, बात यह है कि मैं तो मामूली खानदान का हूँ, लेकिन मेरी वाइफ ऊँचे खानदान की है। चार साले हैं। तीन क्लास वन पोस्ट पर हैं, चौथा बड़ा बिज़नेसमैन है। मेरे फादर- इन-लॉ भी सिंडिकेट बैंक के मैनेजर से रिटायर हुए। आइ मीन हाई कनेक्शंस। इसीलिए मेरी वाइफ मेरे कपड़े-लत्तों के मामले में कांशस है।’

उसे अपने फादर-इन लॉ और ब्रदर्स-इन-लॉ के बारे में बताने में बहुत गर्व होता है। चेहरा गर्व से फूल जाता है। किसी से परिचय होने पर वह अपने फादर-इन-लॉ और ब्रदर्स-इन-लॉ का हवाला ज़रूर देता है। दफ्तर के लोग उसकी इस आदत से परिचित हैं, इसलिए जैसे ही वह अपनी ससुराल का पंचांग खोलता है, लोग दाहिने बायें छिटक जाते हैं।

लेकिन इस रुख का कोई असर वर्मा पर नहीं होता। कोई मकान देखने पर वह टिप्पणी करता है— ‘मेरे फादर-इन-लॉ के मकान का दरवाजा भी इसी डिज़ाइन का है।’ कोई कार देखकर कहता है— ‘मेरे बड़े ब्रदर-इन-लॉ ने भी अभी अभी नई इन्नोवा खरीदी है।’ बेचारा ससुराल के ‘परावर्तित गौरव’ में नहाता-धोता रहता है।

बेहतर खानदान वाली बीवी का शिकंजा उस पर ज़बरदस्त है। जब हम लोग आपस में बैठकर भद्र-अभद्र मज़ाक से जी हल्का करते हैं तब वह मुँह बनाये, फाइलों में नज़र गड़ाये रहता है। बाद में कहता है, ‘भई, बात यह है कि माइ वाइफ डज़ंट लाइक चीप जोक्स। वह बहुत कल्चर्ड खानदान की है। यू सी, शी इज़ वेल कनेक्टेड। उसके घर में कोई हल्के मज़ाक नहीं करता।’

दफ्तर में वह आन्दोलन, विरोध वगैरह में हिस्सा नहीं लेता। कहता है, ‘यह सब कल्चर्ड आदमी के लिए ठीक नहीं है।वी शुड बिहेव लाइक कल्चर्ड पीपुल। हम बात करें, लिख कर दें, लेकिन यह शोर मचाना, नारेबाज़ी करना मुझे पसन्द नहीं है। मेरी वाइफ भी इसको पसन्द नहीं करती। यू सी, शी बिलांग्स टु अ वेरी कल्चर्ड फेमिली।’
दफ्तर में लोग इस नक्कूपन पर उससे बहुत उलझते हैं, उससे बहस करते हैं, लेकिन उस पर कोई असर नहीं होता। वह अपनी टाई सँभालते हुए कहता है, ‘भई देखिए, दिस इज़ अ मैटर आफ प्रिंसिपिल्स। मैं अपने प्रिंसिपिल्स से हटकर कोई काम नहीं कर सकता।’

एक बार उसने हम तीन चार लोगों को अपने घर खाने पर बुलाया था। उसकी बीवी से साक्षात्कार हुआ। ऐसी ठंडी शालीनता और ऐसा रोबदार व्यवहार कि हम बगलें झाँकने लगे। लगा जैसे हम महारानी एलिज़ाबेथ की उपस्थिति में हों। उसके मुँह से एक एक शब्द ऐसे निकलता था जैसे हम पर कृपा-बिन्दु टपका रही हो।

वर्मा का ड्राइंग रूम अंग्रेजी फैशन से सजा था। नीचे गलीचा था। बीवी के साथ उसके दो फोटो थे। बाकी फादर-इन-लॉ और ब्रदर्स-इन-लॉ के थे। उसके खुद के बाप का कोई फोटो वहाँ नहीं था।

खाने का इन्तज़ाम भी बिलकुल अंग्रेजी नमूने का था। काँटा, छुरी,नेपकिन सब हाज़िर। हमसे ज्यादा आतंकित वर्मा था। हमारे हाथ से काँटा छूट कर प्लेट से टकराता तो वह आतंकित होकर बीवी की तरफ देखने लगता। हम ज़ोर से बोलते तो वह कान खड़े कर के भीतर की टोह लेने लगता। उस पर उसकी बीवी का भयंकर खौफ था। हम भी ऐसे सहमे थे कि खाना चबाते वक्त मुँह से आवाज़ निकल जाती तो हमारे मुँह की हरकत रुक जाती और हम वर्मा का मुँह देखने लगते। हमने ऐसे भोजन किया जैसे किसी की मौत की दावत खा रहे हों।

वर्मा का घर उसके लिए काफी था, लेकिन वह उसके ‘इन लॉज़’ के हिसाब से स्टैंडर्ड का नहीं था। इसलिए उसने पिछले साल मकान बनाने का निश्चय किया। दफ्तर से उसने ऋण लिया और मकान बनना शुरू हो गया।

हमने वर्मा को सलाह दी कि वह अपनी हैसियत के हिसाब से छोटा मकान बनाये, लेकिन उसे अपने ‘इन लॉज़’ की चिन्ता ज़्यादा थी। इसलिए वह बंगला बनाने की जुगत में लग गया। जल्दी ही नतीजा सामने आया। पैसे सब खत्म हो गये और मकान आधा भी न बना।

वर्मा की हालत खराब हो गयी। अब वह दफ्तर में सारा समय कागज़ पर कुछ गुणा-भाग लगाता रहता। बीच बीच में माथा, आँखें, नाक और गर्दन पोंछता रहता। मकान उसकी गर्दन पर सवार हो गया था। उसे दीन- दुनिया की कुछ खबर नहीं थी।

कई बार उसने मुझसे कहा, ‘यार, मकान में बहुत पैसा लग गया। वाइफ के सारे जे़वर गिरवी रखने पड़े। बाज़ार का भी काफी कर्ज़ चढ़ गया। क्या करें? मकान तो ज़िन्दगी में एक बार ही बनता है। नाते-रिश्तेदार महसूस तो करें कि मकान बनाया है।

अंत़तः मकान बन गया। एकदम शानदार। सिर्फ चारदीवारी और गेट नहीं बन पाया क्योंकि पैसे खत्म हो गये और अब कर्ज़ देने वाला कोई नहीं बचा। लेकिन फिर भी वर्मा खुश था क्योंकि अब वह अपने ‘इन लॉज़’ को बिना शर्मिंदा हुए बुला सकता था।

मकान पूरा होने के बाद उसके ‘इन लॉज़’ का आना शुरू हो गया। एक के बाद एक उसके तीन साले पधारे। जब भी आते, वर्मा किराये की एक कार का इन्तज़ाम करता, उन्हें संगमरमर की चट्टानें दिखाता, सिनेमा दिखाता। गाड़ी चौबीस घंटे सेवा में खड़ी रहती। खाने पीने की ढेर सारी चीजें आतीं। उस वक्त वर्मा दफ्तर से छुट्टी लेकर पूरा शाहंशाह बन जाता। बाद में मुझे बताता— ‘तीसरे ब्रदर-इन-लॉ आये थे। मकान देखकर हैरत में आ गये। मान गये कि हम भी कोई चीज़ हैं।’

लेकिन अब कुछ और भी बातें होने लगीं। अब दफ्तर में कुछ लोग उसे ढूंढते आने लगे। उन्हें देखकर उसका मुँह उतर जाता। वह जल्दी से उठ कर उन्हें कहीं अलग ले जाता। उनकी बातें तो सुनायी नहीं देती थीं, लेकिन उनके हाव-भाव देख कर पता चल जाता था कि क्या बातें हो रही हैं। उन आदमियों के चले जाने पर वर्मा देर तक बैठा पसीना पोंछता रहता।

ऐसे लोगों की संख्या बढ़ती गयी। अंत में ऐसे लोग बड़े साहब के पास अपने ऋण का तकाज़ा लेकर पहुँचने लगे। बड़े साहब ने वर्मा को बुलाकर हिदायत दी कि अगर भविष्य में उसका कोई ऋणदाता दफ्तर में आया तो वर्मा के खिलाफ कार्रवाई होगी। वर्मा दो पाटों के बीच में फँस गया। सुना कि बहुत से लोग उसके नवनिर्मित महल के चक्कर लगाते थे और वह उनसे भागा फिरता था। उसकी अनुपस्थिति में ऋणदाताओं के सारे श्रद्धा-सुमन उसकी बीवी के हिस्से में आते थे। सुना कि अब उसका आभिजात्य कई डिग्री कम हो गया था।

एक रात वर्मा हड़बड़ाया हुआ मेरे घर में घुस आया। घुसते ही उसने पानी माँगा। बैठकर उसने पसीना पोंछा, बोला, ‘यह चौधरी भी एकदम गुंडा है। बाजार में तीन चार आदमियों के साथ मुझे घेर लिया। कहता था बीच बाजार में मेरे कपड़े उतारेगा। जस्ट सी हाउ अनकल्चर्ड। सिर्फ बीस हज़ार रुपयों के लिए मेरी बेइज्ज़ती करेगा। दिस मैन हैज़ नो मैनर्स। मैं किसी तरह स्कूटर स्टार्ट करके यहाँ भाग आया। घर नहीं गया। सोचा वे पीछा करते शायद घर पहुँच जाएँ।’

वह घंटे भर तक मेरे यहाँ बैठा रहा। उसके बाद उसने विदा ली। चलते वक्त बोला— ‘यार शर्मा, इन पैसे वालों ने तो ज़िन्दगी हैल बना दी। एकदम नरक। ज़िन्दगी का सारा मज़ा खत्म हो गया। साले एकदम खून चूसने वाले हैं।’

फिर कुछ याद करके बोला, ‘हाँ याद आया। इस संडे को मेरे चौथे ब्रदर-इन-लॉ आ रहे हैं। मेरे खयाल से वे भी मेरे ठाठ देख कर इंप्रेस्ड होंगे। व्हाट डू यू थिंक?’
फिर मेरी सहमति पाकर वह स्कूटर स्टार्ट करके कोई गीत गुनगुनाता हुआ चला गया।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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