श्री अरुण श्रीवास्तव
(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आज से प्रस्तुत है आलेखों की एक नवीन शृंखला “प्रमोशन…“ की प्रथम कड़ी। )
☆ आलेख # 84 – प्रमोशन… भाग –2 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆
हमारे बैंक के सामने जो बैंक था उसके लिये “प्रतिद्वंद्वी” शब्द का प्रयोग जरूर किया है पर हकीकत यही थी कि कोई दुर्भावना नहीं थी और उनके और हमारे बीच भाईचारा था, एक सी इंडस्ट्री में काम करने के कारण. जब हम लोग आते थे उसी समय वो लोग भी अपने बैंक आते थे. उनके कस्टमर उनके थे और हमारे कस्टमर हमारे. हां कुछ व्यापारी वर्ग ऐसा जरूर था जिसे दोनों बैंकों से मोहब्बत थी. यही मोहब्बत वहाँ नजर आती जब दोनों बैंक का स्टाफ चाय या पान की दुकान पर तरोताज़ा होने के लिये आता था.
वो गलाकाट मार्केटिंग के बदनुमा दौर से पहले वाला मोहब्बत और भाईचारे का दौर था. चालें और हुनर पूरी शिद्दत से आजमाये जाते थे पर सिर्फ शतरंज, कैरम के बोर्ड पर या टेबलटेनिस की टेबल पर. इन मैचों में सपोर्टबाजी भी होती थी और ह्यूमरस कमेंट्स भी पर सट्टेबाजी नहीं थी. चियरलीडर तो होते थे पर इसमें महिलाओं की एंट्री वर्जित थी. फ्रिज, स्कूटर, टीवी तब लोन लेकर ही खरीदे जाते थे पर पार्टियों के लिये खुद ही व्यवस्था करनी पड़ती थी. ये पार्टियां किस तरह की हों ये देने वालों की जेब और लेने वालों की जिद और कूबत पर निर्भर होता था.
हालांकि बैंकों ने उस वक्त मांबाप के समान कठोर नियंत्रक बनने में जरा सी भी कमी नहीं की थी. अपने स्टाफ को कभी इतना नहीं दिया कि वो शाहखर्ची करे और बिगड़ जाये. यद्यपि पीने वाले उस वक्त भी हुआ करते थे जो घर फूंक कर तमाशा देखा करते थे. सौ का नोट तो बड़ी बात थी जो हिम्मत देता था, पांच सौ के नोट का जन्म हुआ नहीं था और पुराने हजारी लाल याने एक हजार का किंगसाईज नोट “अनलिमिटेड ओवरटाइम” के काल में सैलरी और ओवरटाइम के भुगतान के समय खुद के मार्जिन मनी को मिलाकर पाया जा सकता था. ये कल्पना नहीं सच है और एक शाखा में हुआ भी था.
जो नगरसेठ हुआ करते थे वो कभी कभी खुशियों के लड्डुओं से स्टाफ का मुंह मीठा कराते रहते थे और ये शुभअवसर दीपावली, होली, नयासाल पर आता था या फिर उनके परिवार में नये सदस्य के आगमन पर. इस शुभागमन के लिये कभी सेठ जी जिम्मेदार होते तो कभी उनके पुत्र. मिठास की मधुरता, रिश्तों की मधुरता को सुदृढ़ करती थी जिसे शाखा के सारे लोग इंज्वॉय करते थे.
सहजता, सरलता, सादगी, ईमानदारी, मितव्ययिता, मितभाषी पर मिलनसार और शालीन होना बैंककर्मी की पहचान बन गई थी जिसे पाने की ललक, किरायेदार के रूप में मकान मालिक को और दामाद के रूप में अधिकांश कन्याओं के पिताओं को हुआ करती थी. बैंककर्मी की जेब भले ही हल्की हो पर समाज में सम्मान और विश्वसनीयता भारी हुआ करती थी.
प्रमोशन श्रंखला जारी रहेगी.
© अरुण श्रीवास्तव
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≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈