डॉ  सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(अग्रज  एवं वरिष्ठ साहित्यकार  डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी  जीवन से जुड़ी घटनाओं और स्मृतियों को इतनी सहजता से  लिख देते हैं कि ऐसा लगता ही नहीं है कि हम उनका साहित्य पढ़ रहे हैं। अपितु यह लगता है कि सब कुछ चलचित्र की भांति देख सुन रहे हैं।  आप प्रत्येक बुधवार को डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’जी की रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज के साप्ताहिक स्तम्भ  “तन्मय साहित्य ”  में  प्रस्तुत है  अग्रज डॉ सुरेश  कुशवाहा जी द्वारा रचित एक कविता  माँ। )

☆  साप्ताहिक स्तम्भ – तन्मय साहित्य  # 31☆

☆ माँ ☆  

 

माँ ममता का महाकाव्य, माँ परम्परा है

माँ अनंत आकाश, धीर-गम्भीर धरा है।।

 

माँ मंदिर माँ मस्जिद, माँ गुरुद्वारा है

माँ गंगा-जमुना की शीतल धारा है,

माँ की नेह दृष्टि से, यह जग हरा भरा है……..

 

माँ रामायण माँ कुरान, माँ वेद ऋचायें

माँ बाइबिल, गुरुग्रंथ, विश्व में प्रेम जगाए,

माँ का स्नेहांचल, सागर से भी गहरा है……….

 

माँ चासनी शकर की, तड़का माँ जीरे का

भोजन की खुशबू माँ, माँ का मन हीरे का,

माँ करुणा की मूरत, निश्छल प्रेम भरा है……..

 

माँ के चरणों की रज, है माथे का चंदन

माँ जीवन के सुख समृद्धि का नंदनवन,

द्वार-देहरी बन , देती सबका पहरा है……….

 

माँ तो ब्रह्मस्वरूप, सृष्टि की है रचयिता

माँ ही है असीम शक्ति, माँ भगवद्गीता,

सारे तीर्थों का दर्शन, माँ का चेहरा है………..

 

जन्म दिया मां ने, असंख्य पीड़ाएँ सहकर

पाला-पोसा बड़ा किया, कष्टों में रह कर,

जो भी माँ ने किया, सभी कुछ खरा-खरा है….

 

माँ हमारी प्रार्थना है

और मंगल गीत है

व्यंजनों की थाल है माँ

माँ मधुर नव गीत है।।

 

© डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

जबलपुर, मध्यप्रदेश

मो. 989326601

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