श्री अरुण श्रीवास्तव
(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आज से प्रस्तुत है आलेखों की एक नवीन शृंखला “प्रमोशन…“ की अगली कड़ी। )
☆ आलेख # 85 – प्रमोशन… भाग –3 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆
बैंक की इस शाखा के उस दौर के स्टाफ में मुख्यतः अधिकारी वर्ग और अवार्ड स्टाफ में क्रिकेट का शौक उसी तरह के अनुपात था जैसा आम तौर पर पाया जाता है, याने खेलने वाले कम और सुनने वाले ज्यादा. देखने वाले बिल्कुल भी नहीं थे क्योंकि मैच और खिलाड़ियों के दर्शन, दूरदर्शन सेवा न होने से, उपलब्ध नहीं थे. ये वो दौर था जब 1983 में विश्वकप इंग्लैंड की जमीं पर खेला जा रहा था और तत्कालीन मीडिया का यह मानना था कि भारत की टीम पिछले दो विश्व कप के समान ही उसमें सिर्फ खेलने के लिए भाग ले रही थी जबकि उस दौर की सबसे सशक्त क्रिकेट टीम “वेस्टइंडीज” विश्वकप पाने के प्रबल आत्मविश्वास के साथ इंग्लैंड आई थी. पर 23 जून 1983 की रात को हुआ वो, जिसने कपिलदेव के जांबाजों की इस टीम को विश्वकप से नवाज दिया. पूरा देश इस अकल्पनीय विजय से झूम उठा और क्रिकेट का ज़ुनून न केवल देश में बल्कि बैंक पर भी छा गया. वो जो रस्मीतौर पर सिर्फ स्कोर पूछकर क्रिकेट प्रेमी होने का फर्ज निभा लेते थे, अब क्रिकेट की बारीकियों पर और खिलाड़ियों पर होती चर्चा में रस लेने लगे. कपिलदेव और मोहिंदर नाथ के दीवानों और गावस्कर के स्थायी प्रशंसकों में पिछले रिकार्ड्स और तुलनात्मक बातें, बैंक की दिनचर्या का अंग बन गईं. और ऐसी चर्चाओं का अंत हमेशा खुशनुमा माहौल में तरोताज़ा करने वाली चाय के साथ ही होता था. कभी ये बैंक वाली चाय होती तो कभी बाहर के टपरे नुमा होटल की. ये टपरेनुमा होटल वो होते हैं जहाँ बैठने की व्यवस्था तो बस कामचलाऊ होती है पर चाय कड़क और चर्चाएं झन्नाटेदार और दिलचस्प होती हैं. क्रिकेट के अलावा चर्चा के विषय उस वक्त के करेंट टॉपिक भी हुआ करते थे पर उस समय राजनीति और राजनेता इतने बड़े नहीं हुए थे कि दिनरात उनपर ही बातें करके टाइम खोटा किया जाये. सारे लोग उस समय जाति और धर्म को घर में परिवार के भरोसे छोड़कर बैंक में निष्ठा के साथ काम करने और अपनी अपनी हॉबियों के साथ क्वालिटी टाईम बिताने आते थे. इन हॉबीज में ही कैरम, टेबलटेनिस, शतरंज और करेंट अफेयर्स पर बहुत ज्ञानवर्धक चर्चाएं हुआ करती थीं. क्रिकेट के अलावा ऑपरेशन ब्लूस्टार भी उस दौर की महत्वपूर्ण घटना थी और बीबीसी के माध्यम से इसके अपडेट्स कांट्रीब्यूट करने में प्रतियोगिता चलती थी. यहाँ पर, वो जो चेक पोस्ट करते थे याने एकाउंट्स सेक्शन और वो जो चैक पास करते थे (अधिकारी गण)और वो भी जो इन चैक्स का नकद भुगतान करते थे याने केश डिपार्टमेंट, सब एक साथ या कुछ समूहों में इन परिचर्चाओं का आनंद लिया करते थे. एक टीम थी जिसमें लोग अपने रोल के दायरे से ऊपर उठकर, मनोरंजन नामक मजेदार टाइमपास रस में डूब जाते थे. ऐसी शाखाओं में काम करना, एक और परिवार के साथ दिन बिताने जैसा लगता था हालांकि दोनों की भूमिका और जिम्मेदारियों में फर्क था जो कि स्वाभाविक ही था.
इस शाखा में दिन और रात के हिसाब से परे सिक्युरिटी गार्ड भी थे जो अपनी तयशुदा भूमिका निभाने के अलावा भी बहुत सारी जानकारियों के मालिक थे, वाट्सएपीय ज्ञान इन्हीं की प्रेरणा से अविष्कृत और परिभाषित हुआ. इनमें कुछ अच्छे थे तो कुछ बहुत अच्छे. अब जैसा कि होता है कि बहुत अच्छों की कसौटी पर प्रबंधन को भी कसौटी पर परखे जाने के लिए चौकस या तैयार होना पड़ता है तो वैसा हिसाब हर जगह की तरह यहाँ भी था. ऐसा भी था कि प्रबंधन के अलावा ये यूनियन का भी काम बढ़ाने वाले होते थे. ये लोकल सेक्रेटरी का बहुत टाईम खाया करते थे.
ये शाखा, सामने वाली शाखा और सेठ जी की गद्दी का कारोबार सब बहुत मजे से आनंदपूर्वक चल रहा था. लड्डुओं की मिठास यदाकदा समयानुकूल और विभिन्न कारणों के साथ मिलती रहती थी. पर बैंक को और ऊपरवाले को ये आनंद एक लिमिट से ऊपर मंजूर नहीं हुआ और उन्होंने चेक पोस्ट करने वालों Accounts वालों और उन चैक्स का भुगतान करने वालों Cash वालों की पदोन्नति की प्रक्रिया प्रारंभ करने का निर्णय ले लिया. प्रमोशन का सर्कुलर आने पर क्या हुआ इसका मनोरंजक संस्मरण अगले एपीसोड में. कृपया इंतजार करें. प्रमोशन टेस्ट अगर मौलिक और मनोरंजक रचनाओं पर कमेंट्स करने पर आधारित होता तो आप में से 80% तो कभी पास ही नहीं हो पाते. 😃😃😃
© अरुण श्रीवास्तव
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