श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव
(संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं अग्रज साहित्यकार श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव जी के गीत, नवगीत एवं अनुगीत अपनी मौलिकता के लिए सुप्रसिद्ध हैं। आप प्रत्येक बुधवार को साप्ताहिक स्तम्भ “जय प्रकाश के नवगीत ” के अंतर्गत नवगीत आत्मसात कर सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपका एक भावप्रवण एवं विचारणीय नवगीत “तुमसे हारी हर चतुराई…” ।)
जय प्रकाश के नवगीत # 26 ☆ धूप… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव ☆
डर गई है धूप
घर के मुखौटों से
खिड़कियों से लौट जाती है।
एक चेहरा
धुंध में लिपटा हुआ
अँधेरे में हाँफता है
कोई जैसे
तंग गलियों से निकल
रोशनी में झाँकता है
कब हँसी है धूप
बैठी मुँडेरों पर
दिन गुजरता शाम गाती है।
भूख चूल्हा
सुलगता है पेट में
रोटियाँ सिकती रहीं हैं
मंडियों तक
दलालों के जाल में
मछलियाँ फँसती रहीं हैं
बाज़ारों में हो
रहे नीलाम रिश्ते
बेबसी बस कुनमुनाती है।
व्यक्तिवादी
सोच का ले आइना
देखते अपनी ही सूरत
गढ़ रहे हैं
अपने हाथों स्वयं की
अहंकारी एक मूरत
खेलते हैं खेल
जो मिल सभागारों में
उन्हें कुछ न शर्म आती है
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© श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव
सम्पर्क : आई.सी. 5, सैनिक सोसायटी शक्ति नगर, जबलपुर, (म.प्र.)
मो.07869193927,
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈