हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 34☆ व्यंग्य – मोबाइल और उत्सुकता का अन्त☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुन्दन सिंह परिहार

(आपसे यह  साझा करते हुए हमें अत्यंत प्रसन्नता है कि  वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे  आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता  और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं। आज  का  व्यंग्य  ‘मोबाइल और उत्सुकता का अन्त‘ हमें  सूचना क्रान्ति  के साथ ही हमारे जीवन में उसके प्रभाव और उनसे सम्बंधित परिवर्तन पर दिव्य दृष्टि डालता है। डॉ परिहार जी ने इस बार मोबाईल  क्रान्ति के सूचना विस्फोट पर गहन शोध किया है। संभवतः डॉ परिहार जी के मस्तिष्क में मोबाईल पर सोशल मीडिया विस्फोट  विषय पर  भी निश्चित ही कुछ न कुछ तो चल ही रहा होगा । डॉ परिहार जी एवं हमारी समवयस्क पीढ़ी ने अब तक की जो सूचना क्रान्ति देखी है उसकी कल्पना भी नवीन और आने वाले पीढ़ियां नहीं कर सकती। ऐसी  सार्थक रचना के लिए डॉ परिहार जी की  लेखनी को नमन। )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 34 ☆

☆ व्यंग्य – मोबाइल और उत्सुकता का अन्त ☆

यह सूचना-विस्फोट का युग है। जिधर देखिए, धाँय धाँय सूचना के बम फूट रहे हैं। कुछ भी पोशीदा, कुछ भी अज्ञात नहीं रहा। मीडिया के खबरची और कैमरामेन सब तरफ बौराए से दौड़ते रहते हैं—-ड्राइंगरूम से बेडरूम तक, धरती से आकाश तक, गुलशन से सहरा तक। सूचना-तन्तु चौबीस घंटे घनघनाते रहते हैं।

मोबाइल आने के बाद लगता है, आदमी सामान्य नहीं रहा। जो बातें करना कतई ज़रूरी नहीं,वे भी होती रहती हैं क्योंकि मोबाइल को थोड़ी थोड़ी देर में मुँह और कान से चिपकाये बिना चैन नहीं पड़ता। ‘क्यों भैया, उठ गये? नाश्ता हो गया? कल शाम कहाँ थे? और क्या हाल है? आज क्या प्रोग्राम है?’

एक दिन एक सज्जन मेरे घर के सामने सड़क पर इधर से उधर घूमते और अपने आप से ज़ोर ज़ोर से बातें करते दिखे। मैं समझा दिमाग़ से कमज़ोर होंगे। फिर ग़ौर किया तो देखा वे कान से मोबाइल चिपकाये थे। कई लोग दूर से ऐसे दिखते हैं जैसे कान पर हाथ धर कर कोई सुर साध रहे हों, लेकिन पास जाने पर पता चलता है कि मोबाइल पर बात कर रहे हैं।

ऐसे ही एक बार ट्रेन में एक अनुभव हुआ। एक महिला सबेरे उठते ही मोबाइल लेकर ऊँचे स्वर में शुरू हो गयीं। उन्होंने एक एक कर दूर घर में बैठे सब बच्चों की कैफियत ले डाली। पहले चुन्नू को बुलाया, फिर मुन्नू, टुन्नू, पुन्नू और चुन्नी को भी।  ‘नहा लिया?’ ‘नाश्ता कर लिया?’ ‘स्कूल क्यों नहीं गये?’ ‘आपस में लड़ना मत’, ‘ठीक से रहना’—–रिकॉर्ड जो चालू हुआ तो रुकने का नाम नहीं। ट्रेन की खटर पटर उनकी बुलन्द आवाज़ में दब गयी। सुनते सुनते दिमाग काठ हो गया, लेकिन उनकी हिदायतें चालू रहीं।

मोबाइल ने जीवन से उत्सुकता और संशय का अन्त कर दिया। अब सब कुछ उघड़ा उघड़ा, खुला खुला है। अनुमान और कयास लगाने को कुछ नहीं बचा। लेकिन मुश्किल यह है कि ज़िन्दगी श्याम-श्वेत, सुख-दुख, प्रेम-द्वेष, भय-निश्चिंतता, हर्ष-विषाद का मिला-जुला पैकेज होती है। आदमी की ज़िन्दगी में सुख ही सुख हो तो उबासियाँ आने लगती हैं। मेरे एक मित्र के संबंधी ने आत्महत्या कर ली क्योंकि उनकी ज़िन्दगी में सब कुछ उपलब्ध था, करने को कुछ नहीं था। इसीलिए बहुत से लक्ष्मीपुत्र सुकून और सार्थकता की तलाश में इधर उधर भटकते दिखायी पड़ते हैं। अपने देश में चैन नहीं मिलता तो भारत का रुख करते हैं।

पहले बहुत सा वक्त दूर बैठे मित्रों-संबंधियों की चिन्ता में गुज़र जाता था। चिट्ठी चलती थी तो घूमती घामती बहुत दिनों में किनारे लगती थी। टेलीफोन दुर्लभ था। टेलीफोन के दफ्तरों से ट्रंककॉल होता था जिसके लिए घंटों लाइन लगानी पड़ती थी।

ऐसे में अज़ीज़ों की चिन्ता करने और उनके लिए दुआएं करने के सिवा और कुछ नहीं रह जाता था। अब सूचना का ऐसा आक्रमण है कि मिनट मिनट की सूचना मिल रही है। लेकिन सूचना की उपयोगिता तभी है जब आदमी कुछ कर सके। यदि कहीं किसी संबंधी का आपरेशन चल रहा है तो सूचना मिलने पर हज़ार मील दूर बैठे लोग पूरे समय बदहवास तो हो सकते हैं, लेकिन कुछ कर नहीं सकते। इससे बेहतर तो यह है कि जब आपरेशन हो जाए तभी कुशल मंगल का समाचार मिले।

ऐसा नहीं है कि सूचना से भला ही होता है। बहुत सी बातें पोशीदा, ढकी-मुँदी रहना ही बेहतर होती है। कई ज़िन्दगियाँ मुगा़लतों में कट जाती हैं, यदि हकीकत सामने आ जाए तो बर्दाश्त न हो। तीस-पैंतीस साल पुरानी प्रेमिका अगर अब अचानक सामने आ जाए तो भूतपूर्व प्रेमी को बिजली का झटका लगेगा। पैंतीस साल से सहेजी दिलकश छवि चूर चूर हो जाएगी। इसलिए अब उनका दीदार न हो तो भला।

मोपासां की एक कहानी है जिसमें पत्नी बहुत से गहने खरीदती है और पति के पूछने पर समझाती है कि वे गहने नकली और सस्ते हैं। पत्नी की अचानक मृत्यु हो जाने पर पति उन गहनों की जाँच कराता है और पता चलता है कि गहने असली और बहुमूल्य हैं। यह खुलासा होने पर पति का भ्रम और पत्नी की छवि कैसे टूटती है यह समझा जा सकता है।

लेकिन अब मुगा़लतों, भ्रमों की कोई गुंजाइश नहीं है। सब कुछ सूचना के दायरे में है। अब फिल्मों में हीरोइन यह गीत नहीं गाएगी—‘तुम न जाने किस जहाँ में खो गये’ या ‘बता दे कोई कौन गली गये श्याम’। अब श्याम जहाँ भी होंगे, पाँच मिनट में मोबाइल के मार्फत ढूँढ़ लिये जाएंगे।

मोबाइल के माध्यम से अब घर में आगन्तुक की इतनी सूचना आ जाती है कि उसके आने का कुछ मज़ा ही नहीं रहता। दिल्ली से बैठते हैं तो मथुरा, आगरा, ग्वालियर, झाँसी से फोन करते रहते हैं, यहाँ तक कि सुनने वाला परेशान हो जाता है। आखिरी फोन आने पर जब घरवाले पूछते हैं, ‘कहाँ तक पहुँचे भैया?’ तो जवाब मिलता है, ‘आपके गेट पर खड़े हैं।’ अब ऐसे मेहमान का आना क्या और न आना क्या।

इसमें शक नहीं कि सूचना-क्रांति ने बहुत सी जगहें भर दीं, बहुत से शून्य पाट दिये, लेकिन साथ ही साथ इंतज़ार, संशय और रोमांच के जो क्षण खाली हुए हैं वे कैसे भरे जाएंगे, इसका जवाब मिलना अभी बाकी है।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश