हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 34 – जूही का श्रृंगार ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

 

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत हैं  – एक भावप्रवण लघुकथा  “जूही का श्रृंगार”।  बचपन की स्मृतियाँ आजीवन हमारे साथ चलती रहती हैं और कुछ स्मृतियाँ भविष्य में  यदा कदा भावुकतावश नेत्र सजल कर देती हैं। श्रीमती सिद्धेश्वरी जी  का कथा शिल्प कथानक को सजीव कर देता है। इस अतिसुन्दर लघुकथा के लिए श्रीमती सिद्धेश्वरी जी को हार्दिक बधाई। 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 34 ☆

☆ लघुकथा – जूही का श्रृंगार

जूही अपने घर परिवार में बहुत प्यारी बिटिया। सभी उसका ध्यान रखते और जूही भी सबका दिल जीत लेती।

घर के पास में ही फूल मंडी थी। इसलिए मम्मी पापा ने बिटिया के जन्म होते समय बहुत प्यार से बिटिया का नाम ‘जूही’ रख दिया। धीरे-धीरे जूही बड़ी होने लगी।

स्कूल पढ़ने जाने लगी। समय बीतता गया फूल मंडी में एक दादू बैठ, अपनी दुकान लगाते थे। जहां पर बचपन से वह पापा के साथ जाकर, फूल खरीद कर लाया करती थी। दादू भी जूही की बाल लीला को देखते देखते जाने कब उसे अपने स्नेह से अपना बना लिए कि बिना दुकान जाए जूही का मन नहीं लगता था।

दादू कहते… देखना जूही तेरी शादी के समय मैं इतना सुंदर फूलों का श्रृंगार बनाऊंगा कि सब देखते रह जाएंगे। दादू के मजाक करने की आदत और उनका अपनापन जूही को बहुत भाता था।

कालेज पढ़ने जूही दूसरे शहर गई हुई थी। जब भी आती दादू से जरूर मिल कर जाती थी। अब दादू सयाने हो चले थे।

एक दिन बातों ही बातों में उन्होंने कहा…. जूही मैं देखना किसी दिन चला जाऊंगा दुनिया से और तू मुझे बहुत याद करेगी।

जूही का मन बहुत व्याकुल हो उठता था, उनकी बातों से। अब दादू के दुकान पर उनका बेटा बैठने लगा था।

अचानक जूही की शादी तय कर दी गई। कुछ दिनों से जूही बाहर थी। घर आई शादी का कार्यक्रम शुरु हो चुका था। बहुत खुश जूही आज जल्दी से अपने दादू के पास जाने को बेकरार हो रही थी। क्योंकि दादू ने कहा था… शादी में फूलों का श्रृंगार बनाऊंगा। घर से निकलकर जूही दुकान पर पहुंची बेटे से पूछा…. कि दादू कहां है… उन्होंने एक पत्र निकाल कर दिया। पत्र पढ़ते ही धम्म से जूही पास की बेंच पर बैठ गई। क्योंकि उसके दादू तस्वीर में कैद हो चुके थे, और उनकी अंतिम इच्छा थी कि जब भी जूही आए, मुझे गुलाब के फूलों की माला पहनाकर मेरा श्रृंगार करें।

जूही को लगा आज सारे फूलों की खुशबू दादू के साथ चली गई है और जूही बिना सुगंध के रह गई। जूही ने भरे मन से तस्वीर पर माला पहनाया और घर वापस लौट आई।

 

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश