श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’
(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना “दृग उरझत टूटत कुटुम…”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)
☆ दृग उरझत टूटत कुटुम… ☆
बदलाव की आँधी भले ही न चली हो किंतु वैचारिक परिवर्तन की लहर जोरों से चल रही है। सही भी है युवा पीढ़ी को नए – नए लोग चाहिए, जो सालों से चल रहा है उसे अपडेट होना होगा, भावनात्मक रिश्ता हमें एक ही ढर्रे पर चलने को निर्देशित करता है किंतु सत्ता का गलियारा प्रबुद्धजनों की सशक्त आवाज की माँग लंबे समय से कर रहा है।
भारत को विश्व गुरु बनना है तो ऐसे चौकानें वाले निर्णय करने होंगे, तभी सारे लोग इसकी ओर उम्मीद भरी निगाहों से देखेंगे। एक जुटता के साथ देश हित में प्रमुख बिंदुओं पर सभी को एक मत होना चाहिए।
बिगड़ी बात बनें नहीं, लाख करो किन कोय।
रहिमन फाटे दूध को, मथे न माखन होय।।
राजनीति की पाठशाला केवल जनता के बीच जाकर पढ़ने से नहीं चलेगी, ये तो प्रयोग का केंद्र है,अब तो नियमों को लागू करने के लिए दूरगामी प्रभावों को भी ध्यान में रखना होगा। शिक्षित समाज विश्व पटल पर अपनी उपस्थिति दर्ज कराते हुए सर्वेसर्वा बनने की चाहत रखता है। डिजिटल युग ने सचमुच कर लो दुनिया मुट्ठी में कर दिया है। इसे आध्यात्मिक दृष्टि से देखें तो मोह माया पालना सचमुच दुःख का कारण बनता है। सामान्य कार्यकर्ता से आगे बढ़कर जो पाया था उसे कभी न कभी तो छोड़ना ही होगा, जो अपना था ही नहीं उसके लिए दर्द कैसा।
अब समय आ गया है कि कैलेंडर वर्ष के बदलाव के साथ हम अपनी सोच को भी नए रूप में स्वीकार करते हुए सबके साथ आगे बढ़ें।
© श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’
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