श्री संतोष नेमा “संतोष”
(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है संतोष के दोहे – शीत ऋतु। आप श्री संतोष नेमा जी की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)
☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 194 ☆
☆ संतोष के दोहे – शीत ऋतु ☆ श्री संतोष नेमा ☆
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सर्द हवाएं कह रहीं, बच कर रहिये आप
उचित समय जब भी मिले, धूप लीजिये ताप
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वृद्ध सदा बच कर रहें, खून जमे तत्काल
बी पी, हृदयाघात में, करे ठंड बेहाल
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काँटों सी चुभने लगी, खूब कपाती ठंड
लगती है जैसे नियति, बाँट रही हो दंड
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दांतों का चुम्बन बढ़ा, लाली लिए कपोल
आँखों में है धुंध सी, वदन रहा अब डोल
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पिय से कहती रात जब, सदा रहो तुम पास
तड़का लगता देह का, तब बुझती है प्यास
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ठंडी से ठंडक मिले, बढ़े मिलन की आस
ज्ञानी कहते ठंड में, रहो पिया के पास
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जिनको गर्मी में रहा, रवि से बहुत मलाल
वही ठंड में कर रहे, उसका बहुत खयाल
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उठकर देखो सुबह से, लेते सूरज- ताप
लेकर प्याली चाय की, पेपर बांचें आप
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श्रमिक कभी ना सोचता, क्या गर्मी क्या ठंड
रोजी-रोटी के लिए, सहे नियति के दंड
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पूस माह की ठंड में, रहें न पिय से दूर
प्रेम बरसता उस घड़ी, खुशी मिले भरपूर
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कहता है संतोष अब, तापो खूब अलाव
पर रक्खो सबके लिए, दिल में सदा लगाव
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© संतोष कुमार नेमा “संतोष”
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