श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’
(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना “मखमल के झूले पड़े…”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)
☆ मखमल के झूले पड़े… ☆
भावनाओं को सीमा में नहीं बाँधा जा सकता, हर शब्द का अपना एक विशिष्ट अर्थ होता है जिसको परिस्थितियों के अनुसार हम परिभाषित करते हैं। लाभ – हानि , सुख- दुख ये मुख्य कारक होते हैं; व्यक्ति के जीवन में एक के लिए जो अच्छा हो जरूरी नहीं वो दूसरे के लिए भी वैसा हो। काल और समय के अनुसार विचारों में परिवर्तन देखने को मिलते हैं।
परिभाषा वही सार्थक होती है जो दूरदर्शिता के आधार पर निर्धारित हो, इसी तरह कोई भी रचना जब भविष्य को ध्यान में रख वर्तमान की विसंगतियों पर प्रकाश डालती है तो वो लोगों को अपने साथ जोड़ने लगती है तब उसमें निहित संदेश व मर्म लोगों को समझ आने लगता है।
केवल मनोरंजन हेतु जो भी साहित्य लिखा व पढ़ा जाता है उससे हमारे व्यक्तित्व विकास में कोई प्रभाव नहीं पड़ता किन्तु जब हम ऐसे लेखन से जुड़ते हैं जो कालजयी हो तो वो आश्चर्यजनक रूप से आपके स्वभाव को बदलने लगता है और जो संदेश उस सृजन में समाहित होता है आप कब उसके हिस्से बन जाते हो पता ही नहीं चलता अतः अच्छा पढ़े, विचार करें फिर लिखें तो अपने आप ही सारे शब्द व विचार परिभाषित होने लगेंगे।
यही बात जीवन के संदर्भ में समझी जा सकती है, निर्बाध रूप से अगर जीवन चलता रहेगा तो उसमें सौंदर्य का अभाव दिखायी देगा, क्योंकि परिवर्तन ही प्रकृति का नियम है। सोचिए नदी यदि उदगम से एक ही धारा में अनवरत बहती तो क्या जल प्रपात से उत्पन्न कल- कल ध्वनि से वातावरण गुंजायमान हो सकता था। इसी तरह पेड़ भी बिना शाखा के बिल्कुल सीधे रहते तो क्या उस पर पक्षियों का बसेरा संभव होता।बिना पगडंडियों के राहें होती, केवल एक सीध में सारी दुनिया होती तो क्या घूमने में वो मज़ा आता जो गोल- गोल घूमती गलियों के चक्कर लगाने में आता है। यही सब बातें रिश्तों में भी लागू होती हैं इस उतार चढ़ाव से ही तो व्यक्ति की सहनशीलता व कठिनाई पूर्ण माहौल में खुद को ढालने की क्षमता का आँकलन होता है। सुखद परिवेश में तो कोई भी अपनी प्रतिभा का प्रदर्शन कर वाहवाही लूट सकता है पर श्रेष्ठता तो प्रतिकूल परिस्थितियों में भी अपना लोहा मनवाने में होती है , सच पूछे तो वास्तविक आंनद भी तभी आता है जब परिश्रम द्वारा सफलता मिले। हम सब सौभाग्यशाली हैं, 500 वर्षों की तपस्या रंग ला रही है, भावनात्मक जीत का प्रतीक राम जन्मभूमि स्थान पुनः जगमगाने लगेगा।
© श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’
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