डॉ कुंदन सिंह परिहार
(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय डॉ कुन्दन सिंह परिहार जी का साहित्य विशेषकर व्यंग्य एवं लघुकथाएं ई-अभिव्यक्ति के माध्यम से काफी पढ़ी एवं सराही जाती रही हैं। हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहते हैं। डॉ कुंदन सिंह परिहार जी की रचनाओं के पात्र हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं। उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय कथा – ‘बछेड़ा ‘। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार # 226 ☆
☆ कहानी – बछेड़ा ☆
मुकुन्द को दयाल साहब के परिवार की सेवा करते हुए पन्द्रह साल से ऊपर हुए। अब वह इस परिवार का अंग बन चुका है। जब वह इस घर में आया था तब बड़े दयाल साहब पैंतालीस साल के फेरे में थे, अब वे रिटायर हो चुके हैं।
मुकुन्द की इस परिवार में खासी पकड़ है। धीरे-धीरे पूरा परिवार उस पर निर्भर हो गया है। ज़रूरत पड़ने पर परिवार के सदस्य पूरे घर को उसके भरोसे छोड़ कर चल देते हैं। घर में मुकुन्द की बात कम ही कटती है। सामान्यतया उसके निर्णय पर सब की मौन मुहर लग जाती है।
मुकुन्द खाना बनाने से लेकर घर के सब कामों में कुशल है। सफाई और टेबिल मैनर्स तक सब बातों में चाक-चौबन्द है। दूसरे मालिक अपने नौकरों को पटरी पर रखने के लिए उसका उदाहरण देते हैं। मुकुन्द दूसरे नौकरों के साथ बैठकर फालतू गपबाज़ी नहीं करता, न ही उसने कोई ऐब पाले हैं। अपने मालिक के घर में इज़्ज़त से रहना ही उसे पसन्द है।
बड़े दयाल साहब चार-पाँच साल पहले डायबिटीज़ की चपेट में आ गये। तब से उनके खाने-पीने पर परिवार की नज़र रहती है। ड्राइंग रूम में मेहमानों के बीच बैठने पर मिठाइयों पर झपट्टा मारने की कोशिश करते हैं। उन पर हर वक्त मुकुन्द की थानेदार जैसी नज़र रहती है। मेहमानों के उठते ही वह सारी मिठाइयाँ समेट कर ले जाता है और बड़े दयाल साहब खूनी नज़रों से उसे देखते रह जाते हैं। जानते हैं कि ज़्यादा गड़बड़ करने पर परिवार तक उनकी हरकत की रिपोर्ट पहुँच जाएगी।
बड़े दयाल साहब की पत्नी यानी माँ जी घुटनों के दर्द से परेशान रहती हैं। जाड़े में धूप की तलाश में रहती हैं, लेकिन आजकल मकानों में आँगन के लिए जगह छोड़ना बेवकूफी और कीमती जगह का दुरुपयोग समझा जाता है। इसलिए घर की महिलाओं को धूप और हवा के लिए छत पर ही जाना पड़ता है। माँ जी के लिए यह दुष्कर है। यह मुकुन्द की ज़िम्मेदारी होती है कि वह उन्हें सहारा देकर सीढ़ियाँ चढ़ाए और फिर वापस उतार कर लाए।
इस घर में पन्द्रह साल से अधिक की सेवा में मुकुन्द ने कभी एक बार में एक हफ्ते से ज़्यादा की छुट्टी नहीं ली, वह भी साल दो-साल में एक बार। बस दौड़ा दौड़ा गाँव जाता है और दौड़ा दौड़ा वापस आ जाता है। घर में सब कुशल क्षेम है तो और क्या चाहिए? नौकरी को मज़बूत बनाये रखना ज़रूरी है, वर्ना घर को हिलते देर नहीं लगेगी।
लेकिन इस बार मुकुन्द को लंबी छुट्टी चाहिए, कम से कम एक माह की। गाँव में बेटी जवान हो गयी है, उसके हाथ पीले करने हैं। जवान बेटी गाँव में हो तो बाप का मन हर वक्त आशंकित रहता है। इसी के लिए पेट पर गाँठ लगा लगा कर मुकुन्द ने पैसा बचाया है।
मुकुन्द ने दयाल साहब के परिवार को आश्वासन दिया है कि वह एक माह के लिए अपने गांँव से कोई अच्छा लड़का ले आएगा ताकि परिवार को दिक्कत न हो। गाँव में बेरोज़गार लड़कों की भीड़ है। एक को बुलाओ तो दस आकर खड़े हो जाते हैं। ‘काका, हमको ले चलो। आप जो तनखा दिलाओगे, हम ले लेंगे।’ सोचते हैं निठल्लेपन के कारण घर में दिन-रात जो लानत- मलामत होती है उससे बचेंगे।
मुकुन्द एक पन्द्रह सोलह साल के लड़के को ले आया है, नाम है नकुल। नकुल को बंगलों में काम का अनुभव नहीं है, लेकिन है तेज़ और फुर्तीला। कोई चिन्ताजनक आदतें भी नहीं हैं। बाकी मुकुन्द ने अच्छी तरह हिदायत दे दी है— ‘ठीक से काम करना। गाँव की नाक मत कटाना। छिछोरापन करोगे तो आगे कहीं काम नहीं मिलेगा। हम छुट्टी से लौट कर किसी अच्छे बंगले में लगवा देंगे।’ नकुल समझदार की तरह सहमति में सिर हिलाता है।
मुकुल निश्चिंत होकर बेटी को विदा करने चला गया है। इधर नकुल बंगले में काम में रम गया है। ज़िम्मेदारी समझता है, सिखाने पर जल्दी सीखने और फिर गलती न करने की कोशिश करता है। घर पर लोग उसके काम से खुश हैं। सबसे बड़ी बात यह है कि उसके बदन में सुस्ती नहीं है। सबेरे एक आवाज़ पर उठकर खड़ा हो जाता है। कभी रात को उठाना पड़े तो बिना माथा सिकोड़े तुरन्त उठ जाता है। कहीं भी बुलाए जाने पर उड़ता हुआ सा तत्काल पहुँच जाता है।
अब बड़े दयाल साहब भी खुश हैं क्योंकि नकुल उन्हें मिठाई चुराते देख नज़र फेर लेता है। अभी वह उनकी बीमारी के बारे में ज़्यादा समझता भी नहीं है। माँ जी को भी उसकी देहाती बोली-बानी सुहाती है। अभी उसके मुँह से अपने अंचल के शब्द फूलों की तरह टपकते रहते हैं। माँ जी उन्हें सुनकर मगन हो जाती हैं। एक दिन उनके हाथ से कोई काम बिगड़ने पर नकुल बोला, ‘अरे अम्माँ जी, आपने तो सब बिलोर दिया’, और माँ जी हँसते हँसते लोटपोट हो गयीं। उस दिन से ‘बिलोरना’ और ‘बिलोरन’ घर के वार्तालाप के ज़रूरी अंग बन गये। रोज़ दस बीस बार घर के सदस्यों द्वारा इन शब्दों का उपयोग होने लगा। लेकिन माँ जी जानती हैं कि कुछ दिन में नकुल भी शहर की संस्कृति में ढल जाएगा और फिर अपनी बोली को हेय समझ कर शहर की बेजान भाषा में रमने की कोशिश करेगा।
परिवार में नकुल के काम की तारीफ होती रहती है जिसे सुनकर वह खुश हो जाता है। काका लौटेंगे तो वे भी सुनकर संतुष्ट होंगे।
नकुल ने ज़िन्दगी में पहली बार स्वतंत्र रूप से पैसे रखने का सुख उठाया है। पैसे की ताकत को महसूस किया है। पैसे रखना और उन्हें सँभालना उसे खूब अच्छा लगता है।
मुकुन्द के लौटने की तिथि नज़दीक आने के साथ घर में कुछ विचार-मंथन शुरू हो गया है। नकुल की तुलना मुकुन्द से की जाने लगी है जिसमें निष्कर्ष हमेशा नकुल के पक्ष में जाता है। बड़े दयाल साहब बीच-बीच में कह देते हैं कि मुकुन्द अब बूढ़ा हो रहा है, अब घर में किसी जवान लड़के को रखना उचित होगा।
नकुल से धीरे धीरे पूछा भी जा चुका है कि अगर उसे मुकुन्द की जगह रख लिया जाए तो क्या वह पसन्द करेगा? माँ जी उसे धीरे-धीरे समझाती हैं कि उसे मुकुन्द ने भले ही वहाँ रखा हो लेकिन उसे लिहाज छोड़कर ज़िन्दगी में अपनी राह बनाना चाहिए। अपने काम को इतनी प्रशंसा मिलते देख नकुल को खुशी होती है, लेकिन काका की जगह लेने के प्रस्ताव पर वह असमंजस में है।
मुकुन्द बेटी को विदा कर निश्चिंत लौट आया है। अब नकुल को कहीं चिपकाने की कोशिश करेगा।
लेकिन घर की फिज़ाँ में उसे कुछ बदलाव लगता है जो उसकी समझ में नहीं आता। अब घर के सदस्यों में उसके प्रति पहले जैसी गर्माहट नहीं है। उसके काम में कुछ ज़्यादा ही मीन-मेख निकाला जाने लगा है। बड़े दयाल साहब जब तब बोल देते हैं, ‘अब तुमसे नहीं होता। तुम रिटायर हो जाओ।’
आखिर एक दिन बड़े दयाल साहब ने साफ बात करने का बीड़ा उठा लिया। मुकुन्द से बोले, ‘हम सोचते हैं अब नकुल ही यहाँ काम करता रहे। तुम सयाने हो गये हो। अब तुम्हें गाँव लौट जाना चाहिए।’ यह बात कान में पड़ते ही नकुल कहीं छिप गया।
मुकुन्द सब समझ गया। उसकी समझ में आ गया कि नकुल को वहाँ काम पर लगाना उसके लिए भारी पड़ गया। लेकिन अब कुछ नहीं हो सकता था।
दूसरे दिन सबेरे अपना हिसाब- किताब करने के बाद मुकुन्द ने अपना सामान समेटा। नकुल उससे मुँह छिपाता फिर रहा था।मुकुन्द ने उसे नहीं ढूँढ़ा। वह अपना सामान समेट कर रिक्शा पकड़कर बस स्टैंड पहुंच गया। उसके चलते वक्त घर के लोगों ने कोई भावुकता नहीं दिखायी। अभी गाँव जाएगा, उसके बाद आगे की सोचेगा।
इधर मुकुन्द के जाने के बाद नकुल का मन पश्चात्ताप से भर गया। पैसे और प्रशंसा के लोभ में उसने बड़ी गलती कर दी थी। वह मुकुन्द को पछयाता हुआ बस स्टैंड पहुँच गया।
उसके पास पहुँचकर भरी आँखों से बोला, ‘काका, हमसे गलती हो गयी। हम उन लोगों की बातों में आ गये। आप लौट चलो। हम वहाँ नहीं रहेंगे। आप हमें कहीं और लगवा देना, नहीं तो हम गाँव लौट जाएँगे।’
उसके प्रति मुकुन्द की शिकायत पल में धुल गयी। स्नेहसिक्त स्वर में बोला, ‘भैया, अब हमारी उस घर में गुज़र नहीं होगी। हमारा दाना-पानी वहाँ से उठ गया। हम लौट भी जाएँगे तब भी अब पहले जैसी बात नहीं रहेगी। तुम जब तक रह सको वहाँ रहो। शहर के रंग-ढंग सीख जाओगे तो आगे का रास्ता बनेगा। धीरे-धीरे अपने बूते शहर में रहना सीख लेना। दूसरों पर बहुत भरोसा मत करना।’
© डॉ कुंदन सिंह परिहार
जबलपुर, मध्य प्रदेश
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈