डॉ. मुक्ता
(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से हम आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख मन अच्छा हो सकता है…। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की लेखनी को इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 220 ☆
☆ मन अच्छा हो सकता है... ☆
“मन खराब हो, तो शब्द खराब ना बोलें, क्योंकि बाद में मन अच्छा हो सकता है, लेकिन शब्द नहीं।” गुलज़ार के यह शब्द मानव को सोच-समझकर व लफ़्ज़ों के ज़ायके को चख कर बोलने का संदेश देते हैं, क्योंकि ज़ुबान से उच्चरित शब्द कमान से निकले तीर की भांति होते हैं, जो कभी लौट नहीं सकते। शब्दों के बाण उससे भी अधिक घातक होते हैं, जो नासूर बन आजीवन रिसते रहते हैं।
मानव को परीक्षा संसार की, प्रतीक्षा परमात्मा की तथा समीक्षा व्यक्ति की करनी चाहिए। परंतु हम इसके विपरीत परीक्षा परमात्मा की, प्रतीक्षा सुख-सुविधाओं की और समीक्षा दूसरों की करते हैं, जो घातक है। ऐसे लोग अक्सर परनिंदा में रस लेते हैं अर्थात् अकारण दूसरों की आलोचना करते हैं। हम अनजाने में कदम-कदम पर प्रभु की परीक्षा लेते हैं, सुख-ऐश्वर्य की प्रतीक्षा करते हैं, जो कारग़र नहीं है। ऐसा व्यक्ति ना तो आत्मावलोकन कर सकता है, ना ही चिंतन-मनन, क्योंकि वह तो ख़ुद को सर्वश्रेष्ठ व सर्वोत्तम स्वीकारता है और दूसरे लोग उसे अवगुणों की खान भासते हैं।
आदमी साधनों से नहीं, साधना से महान् बनता है; भवनों से नहीं, भावना से महान बनता है; उच्चारण से नहीं, उच्च आचरण से महान् बनता है। मानव धन, सुख-सुविधाओं, ऊंची-ऊंची इमारतों व बड़ी-बड़ी बातों के बखान से महान् नहीं बनता, बल्कि साधना, सद्भावना व अच्छे आचार- विचार, व्यवहार, आचरण व सत्कर्मों से महान् बनता है तथा विश्व में उसका यशोगान होता है। उसके जीवन में सदैव उजाला रहता है, कभी अंधेरा नहीं होता है।
जिनका ज़मीर ज़िंदा होता है, जीवन में सिद्धांत व जीवन-मूल्य होते हैं, देश-विदेश में श्रद्धेय व पूजनीय होते हैं। वे समन्वय व सामंजस्यता के पक्षधर होते हैं , जो समरसता के कारक हैं। वे सुख-दु:ख में सम रहते हैं और राग-द्वेष व ईर्ष्या-द्वेष से उनका संबंध-सरोकार नहीं होता। वे संस्कार व संस्कृति में विश्वास रखते हैं, क्योंकि संसार में नज़र का इलाज तो है, नजरिए का नहीं और नज़र से नज़रिये का, स्पर्श से नीयत का, भाषा से भाव का, बहस से ज्ञान का और व्यवहार से संस्कार का पता चल जाता है।
‘ब्रह्म सत्यम्, जगत् मिथ्या’ ब्रह्म अर्थात् सृष्टि-नियंता के सिवाय यह संसार मिथ्या है, मायाजाल है। इसलिए मानव को अपना समय उसके नाम-स्मरण व ध्यान में व्यतीत करना चाहिए। “ख़ुद से कभी-कभी मुलाकात भी ज़रूरी है/ ज़िंदगी उधार की है, जीना मजबूरी है” स्वरचित उक्त पंक्तियाँ आत्मावलोकन व आत्म-संवाद की ओर इंगित करती हैं। इसके साथ मानव को कुछ नेकियाँ व अच्छाइयाँ ऐसी भी करनी चाहिएं, जिनका ईश्वर के सिवा कोई ग़वाह ना हो अर्थात् ख़ुद में ख़ुद को तलाशना बहुत कारग़र है। प्रशंसा में छुपा झूठ, आलोचना में छुपा सच जो जान जाता है, उसे अच्छे-बुरे की पहचान हो जाती है। वह व्यर्थ की बातों से ऊपर उठ जाता है, क्योंकि हर इंसान को अपने हिस्से का दीपक ख़ुद जलाना पड़ता है, तभी उसका जीवन रोशन हो सकता है। दूसरों को वृथा कोसने कोई लाभ नहीं होता।
अहंकार व गलतफ़हमी मनुष्य को अपनों से अलग कर देती है। गलतफ़हमी सच सुनने नहीं देती और अहंकार सच देखने नहीं देता। इसलिए वह संकीर्ण मानसिकता से ऊपर नहीं उठ सकता और ऊलज़लूल बातों में फँसा रहता है। अभिमान की ताकत फ़रिश्तों को भी शैतान बना देती है और नम्रता साधारण व्यक्ति को भी फरिश्ता। इसलिए हमें जीवन में सदैव विवाद से बचना चाहिए और संवाद की महत्ता को स्वीकारना चाहिए। पारस्परिक संवाद व गुफ़्तगू हमारे व्यक्तित्व की पहचान हैं। जीवन में क्या करना है, हमें रामायण सिखाती है, क्या नहीं करना है महाभारत और जीवन कैसे जीना है– यह संदेश गीता देती है। सो! हमें रामायण व गीता का अनुसरण करना चाहिए और महाभारत से सीख लेनी चाहिए कि जीवन में क्या अपनाना श्रेयस्कर नहीं है अर्थात् हानिकारक है।
शब्द, विचार व भाव धनी होते हैं और इनका प्रभाव चिरस्थाई होता है, लंबे समय तक चलता रहता है। इसके लिए आवश्यकता है सकारात्मक सोच की, क्योंकि हमारी सोच से हमारा तन-मन प्रभावित होता है। ‘जैसा अन्न, वैसा मन” से तात्पर्य हमारे खानपान से नहीं है, चिंतन-मनन व सोच से है। यदि हमारा हृदय शांत होगा, तो उसमें काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार ये पांच विकार नहीं होंगे और हमारी वाणी मधुर होगी। इसलिए मानव को वाणी के महत्व को स्वीकारना चाहिए तथा शब्दों के लहज़े / ज़ायके को समझ कर इसका प्रयोग करना चाहिए। मधुर वाणी दूसरों के दु:ख, पीड़ा व चिंताओं को दूर करने में समर्थ होती है और उससे बड़ी से बड़ी समस्याओं का समाधान हो जाता है।
क्रोध माचिस की भांति होता है, जो पहले हमें हानि पहुँचाता है, फिर दूसरे की शांति को भंग करता है। लोभ आकांक्षाओं व तमन्नाओं का द्योतक है, जो सुरसा के मुख की भांति निरंतर बढ़ती जाती है। मोह सभी व्याधियों का मूल है, जनक है, जो विनाश का कारण सिद्ध होता है। काम-वासना मानव को अंधा बना देती है और उसकी सोचने-समझने की शक्ति नष्ट कर देती है। अहंकार अपने अस्तित्व के सम्मुख सबको हेय समझता है, उनका तिरस्कार करता है। सो! हमें इन पाँच विकारों से दूर रहना चाहिए। हमारा मन, हमारी सोच किसी के प्रति बदल सकती है, परंतु उच्चरित कभी शब्द लौट नहीं सकते। सकारात्मक सोच के शब्द बिहारी के सतसैया के दोहों की भांति प्रभावोत्पादक होते हैं तथा जीवन में अप्रत्याशित परिवर्तन लाने का सामर्थ्य रखते हैं। इसलिए मानव को जीवन में सुई बनकर रहने की सीख दी गई है; कैंची बनने की नहीं, क्योंकि सुई जोड़ने का काम करती है और कैंची तोड़ने व अलग-थलग करने का काम करती है। मौन सर्वश्रेष्ठ है, नवनिधियों व गुणों की खान है। जो व्यक्ति मौन रहता है, उसका मान-सम्मान होता है। लोग उसके भावों व अमूल्य विचारों को सुनने को लालायित रहते हैं, क्योंकि वह सदैव सार्थक व प्रभावोत्पादक शब्दों का प्रयोग करता है, जो जीवन में क्रांतिकारी परिवर्तन लाने में सक्षम होते हैं। ऐसे लोगों की संगति से मानव का सर्वांगीण विकास होता है। सो! गुलज़ार की यह सोच अत्यंत प्रेरक व अनुकरणीय है कि मानव को क्रोध व आवेश में भी सोच-समझ कर व शब्दों को तोल कर प्रयोग करना चाहिए, क्योंकि मन:स्थिति कभी एक-सी नहीं रहती; परिवर्तित होती रहती है और शब्दों के ज़ख्म नासूर बन आजीवन रिसते रहती हैं।
© डा. मुक्ता
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