डॉ. ऋचा शर्मा
(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में अवश्य मिली है किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है स्त्री विमर्श पर आधारित एक विचारणीय लघुकथा ‘जिज्जी’। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद # 135 ☆
☆ लघुकथा – जिज्जी ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆
किसी ने बड़ी जोर से दरवाजा भड़भड़ाया, ऐसा लगा जैसे कोई दरवाजा तोड़ ही देगा, ‘अरे! जिज्जी होंगी, सामने घर में रहती हैं, बुजुर्ग हैं। हमारे सुख-दुख की साथी हैं, जब से शादी होकर आई हूँ इस मोहल्ले में, माँ की तरह मेरी देखभाल करती रही हैं। सीढ़ी नहीं चढ़ पातीं इसलिए नीचे खड़े होकर अपनी छड़ी से ही दरवाजा खटखटाती हैं’–सरोज बोली। यह सुनकर मैं मुस्कराई कि तभी आवाज आई – ‘तुम्हारी दोस्त आई है तो हम नहीं मिल सकते क्या? हमसे मिले बिना ही चली जाएगी?’
‘नहीं जिज्जी, हम उसे लेकर आपके पास आते हैं।‘
‘लाना जरूर’, यह कहकर जिज्जी छड़ी टेकती हुई अपने घर की ओर चल दीं। पतली गली के एक ओर सरोज और दूसरी ओर उनका घर। दरवाजे पर खड़े होकर भी आवाज दो तो सुनाई पड़ जाए। गली इतनी सँकरी कि दोपहिया वाहन ही उसमें चल सकते थे। गलती से अगर गली में गाय-भैंस आ जाए फिर तो उसके पीछे-पीछे गली के अंत तक जाएं या खतरा मोल लेकर उसके बगल से भी आप जा सकते हैं।
सरोज बोली– ‘जिज्जी से मिलने तो जाना ही पड़ेगा, नहीं तो बहुत बुरा मानेंगी।‘ हमें देखते ही वह खुश हो गईं, बोली – ‘आओ बैठो बिटिया’। सरोज भी बैठने ही वाली थी कि वह बोलीं – ‘अरे तुम बैठ जाओगी तो चाय-नाश्ता कौन लाएगा? जाओ रसोई में।’ ‘हाँ जिज्जी’ कहकर वह चाय बनाने चली गई। जिज्जी बड़े स्नेह से बातें करे जा रही थीं और मैं उन्हें देख रही थी। उम्र सत्तर से अधिक ही होगी, सफेद साड़ी और सूनी मांग उनके वैधव्य के सूचक थे। सूती साड़ी के पल्ले से आधा सिर ढ़ँका था जिसमें से सफेद घुंघराले बाल दिख रहे थे। गाँधीनुमा चश्मे में से बड़ी-बड़ी आँखें झाँक रही थीं। झुर्रियों ने चेहरे को और भी ममतामय बना दिया था। बातों ही बातों में जिज्जी ने बता दिया कि बेटियां अपने घर की हो गईं और बेटे अपनी बहुओं के। सरोज तब तक चाय, नाश्ता ले आई, उसकी ओर देखकर बोलीं- ‘हमें अब किसी की जरूरत भी नहीं है, डिप्टी साहब (उनके पति) की पेंशन मिलती है और ये है ना हमारी सरोज, एक आवाज पर दौड़कर आती है। बिटिया हमारे लिए तो आस-पड़ोस ही सब कुछ है।‘
‘जिज्जी, बस भी करिए अब, बीमारी -हारी में आप ही तो रहीं हैं हमारे साथ, मेरे बच्चे इनकी गोद में बड़े हुए हैं, जगत अम्माँ हैं ये —-‘ सरोज और जिज्जी एक दूसरे की कुछ भी ना होकर, बहुत कुछ थीं। कहने को ये दोनों पड़ोसी ही थीं, जिज्जी का स्नेहपूर्ण अधिकार और सरोज का सेवा भाव मेरे लिए अनूठा था। महानगर की फ्लैट संस्कृति में रहनेवाली मैं हतप्रभ थी, जहाँ डोर बेल बजाने पर ही दरवाजा खुलता है नहीं तो दरवाजे पर लगी नेमप्लेट मुँह चिढ़ाती रहती है। दरवाजा खुलने और बंद होने में घर के जो लोग दिख जाएं, बस वही परिचय। फ्लैट से निकले अपनी गाड़ियों में बैठे और चल दिए, लौटने पर दरवाजा खुलता और फिर अगली सुबह तक के लिए बंद।
मन ही मन बहुत कुछ समेटकर जब मैं चलने को हुई, जिज्जी छड़ी टेकती हुई उठीं – ‘हमारा बटुआ लाओ सरोज, बिटिया पहली बार हमारे घर आई है’, जिज्जी टीका करने के लिए बटुए में नोट ढ़ूंढ़ रही थीं।
© डॉ. ऋचा शर्मा
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