डॉ कुन्दन सिंह परिहार
☆ व्यंग्य – उधार देने का सुख ☆
उनसे मेरा परिचय सिर्फ सलाम-दुआ तक ही था क्योंकि मुझे मुहल्ले में आये थोड़े ही दिन हुए थे। बुज़ुर्ग आदमी थे। उस दिन वे सबेरे सबेरे अचानक ही मेरे घर में आ गये। बैठने के बाद उन्होंने कमरे में चारों तरफ नज़र दौड़ायी। बोले, ‘वाह, बहुत सुन्दर। आपकी रुचि बहुत अच्छी है।’
मुझे अच्छा लगा। मैंने कहा, ‘जी,यह सब मेरी पत्नी का योगदान है। मेरा योगदान तो इसे यथासंभव बिगाड़ने में रहता है।’
वे हँसे और देर तक हँसते रहे। फिर बोले, ‘आपकी आयु अब कितनी हुई?’ मैंने मुँह बनाकर कहा, ‘आप तो दुखती रग छू रहे हैं। पचास पार हो गया।’ उन्होंने भारी आश्चर्य प्रकट किया, बोले, ‘आप तो बहुत तरुण दिखते हैं। आपको देखकर भला कौन कहेगा कि आप तीस से ज़्यादा हैं?’
यह भी अच्छा लगा। यह ऐसी तारीफ है जिसे सुनकर बूढ़ा सन्यासी भी पुलकित हो जाता है। मैं ठहरा सामान्य सद्गृहस्थ।
वे फिर बोले, ‘आपका बेटा बड़ा मेधावी है। बड़ा होशियार है। ‘मैंने सचमुच मुँह बनाकर कहा,’ नीट में तीसरी बार बैठ रहा है। ‘ वे थोड़ा अप्रतिभ हुए, लेकिन हारे नहीं। बोले, ‘लेकिन उसमें प्रतिभा ज़रूर है और एक दिन वह ज़रूर प्रकाशित होगी। ‘ मैंने कहा, ‘आपके मुँह में घी-शक्कर।’
और थोड़ी देर बैठकर, कुछ नैवेद्य ग्रहण करके उन्होंने विदा ली। दहलीज पार करके दो चार कदम चले होंगे कि ऐसे लौट पड़े जैसे एकाएक कुछ याद आ गया हो। बोले, ‘आपके पास पाँच सौ रुपये पड़े होंगे क्या? एक आदमी को देना है। कल बैंक से निकालना भूल गया। आज बैंक खुलते ही आपको लौटा दूँगा।’
मैंने ‘कैसी बातें करते हैं’ वाले पारंपरिक वाक्य के साथ उन्हें राशि अर्पित कर दी।
उसके बाद बैंक रोज़ खुलते और बन्द होते रहे, लेकिन वे पैसे देने नहीं आये। करीब एक हफ्ते बाद वे फिर आ गये। बैठकर आधे घंटे तक मुहल्ले-पड़ोस और शहर की बातें करते रहे। फिर उठे और उसी अदा से दहलीज से लौट आये। बोले, ‘वह आपका पैसा कुछ झंझटों के कारण नहीं दे पाया। दो तीन दिन में ज़रूर दे दूँगा। आप निश्चिंत रहिएगा।’ मैंने बुदबुदाकर ‘कोई बात नहीं’ कहा।
तीन चार महीने बाद एक दिन पीएच.डी. उपाधि मिलने के कारण मेरा अभिनन्दन हुआ। उस दिन जीवन में पहली बार अभिनन्दन का सुख जाना। उस दिन पता चला कि लोग अभिनन्दन के लिए इतने लालायित क्यों रहते हैं कि अभिनन्दन का खर्च ओढ़ने को भी तैयार रहते हैं।
अभिनन्दन ग्रहण करके कुछ अतिरिक्त प्रसन्नता के मूड में स्कूटर पर लौट रहा था कि रास्ते में उन्होंने आवाज़ दी। कहने लगे, ‘कहाँ से आ रहे हैं?’ मैंने उन्हें अभिनन्दन के बारे में बताया तो उन्होंने मुक्तकंठ से बधाई दी। मैंने चलने के लिए स्कूटर स्टार्ट की तभी वे बोले, ‘वह जो आपका पैसा है, उसकी आप फिक्र मत कीजिएगा। जल्दी ही दे दूँगा।’
मैं चला तो आया लेकिन मेरे मूड का नाश हो गया। घर आकर मैंने निश्चय किया कि पाँच सौ रुपये से भले ही ग़म खाना पड़े, लेकिन इस बला को ख़त्म करना ही होगा।
दूसरे दिन शाम को मैं उनके घर गया। वे बड़े प्रेमभाव से मिले। कुछ बातचीत के बाद मैंने उनसे कहा, ‘मैं एक बात कहने आया हूँ। मैं देख रहा हूँ कि मेरा पैसा देने में आप कुछ दिक्कत महसूस कर रहे हैं। इंसानियत के नाते मैं चाहता हूँ कि आप उस कर्ज को भूल जाएं। एक दूसरे की इतनी मदद तो करनी ही चाहिए।’
वे मेरी बात सुनकर रुआंसे हो गये। बोले, ‘आप कैसी बातें करते हैं? मैंने आज तक किसी का कर्ज नहीं रखा। आपका पैसा नहीं चुकाऊँगा तो मेरी आत्मा मुझे धिक्कारेगी। हमारे घर में देर होती है, अंधेर नहीं होता। आप ऐसा करने के लिए मुझे विवश न करें।’ उन्होंने मेरी तरफ देखकर हाथ जोड़ दिये। मैं उनके पाखंड को देखकर कुढ़कर चला आया।
महीने भर बाद वे फिर घर आ गये। बड़ी देर तक मौसम और राजनैतिक स्थिति की चर्चा करते रहे। फिर उठे, दहलीज तक गये और कुछ याद करके लौट पड़े। तभी मैं पर्दा उठाकर तीर की तरह भीतर भागा और बाथरूम में घुसकर मैंने भीतर से सिटकनी चढ़ा ली।
© डॉ कुंदन सिंह परिहार
जबलपुर, मध्य प्रदेश