श्री संजय भारद्वाज
(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के लेखक श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको पाठकों का आशातीत प्रतिसाद मिला है।”
हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों के माध्यम से हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ संजय उवाच # 233 ☆ विश्व रंगमंच दिवस विशेष – जगत रंगमंच है
‘ऑल द वर्ल्ड इज़ अ स्टेज एंड ऑल द मेन एंड वूमेन मिअरली प्लेयर्स।’ सारा जगत एक रंगमंच है और सारे स्त्री-पुरुष केवल रंगकर्मी।
यह वाक्य लिखते समय शेक्सपिअर ने कब सोचा होगा कि शब्दों का यह समुच्चय, काल की कसौटी पर शिलालेख सिद्ध होगा।
जिन्होंने रंगमंच शौकिया भर किया नहीं किया अपितु रंगमंच को जिया, वे जानते हैं कि पर्दे के पीछे भी एक मंच होता है। यही मंच असली होता है। इस मंच पर कलाकार की भावुकता है, उसकी वेदना और संवेदना है। करिअर, पैसा, पैकेज की बनिस्बत थियेटर चुनने का साहस है। पकवानों के मुकाबले भूख का स्वाद है।
फक्कड़ फ़कीरों का जमावड़ा है यह रंगमंच। समाज के दबाव और प्रवाह के विरुद्ध यात्रा करनेवाले योद्धाओं का समवेत सिंहनाद है यह रंगमंच।
रंगमंच के इतिहास और विवेचन से ज्ञात होता है कि लोकनाट्य ने आम आदमी से तादात्म्य स्थापित किया। यह किसी लिखित संहिता के बिना ही जनसामान्य की अभिव्यक्ति का माध्यम बना। लोकनाट्य की प्रवृत्ति सामुदायिक रही। सामुदायिकता में भेदभाव नहीं था। अभिनेता ही दर्शक था तो दर्शक भी अभिनेता था। मंच और दर्शक के बीच न ऊँच, न नीच। हर तरफ से देखा जा सकनेवाला। सब कुछ समतल, हरेक के पैर धरती पर।
लोकनाट्य में सूत्रधार था, कठपुतलियाँ थीं, कुछ देर लगाकर रखने के लिए मुखौटा था। कालांतर में आभिजात्य रंगमंच ने दर्शक और कलाकार के बीच अंतर-रेखा खींची। आभिजात्य होने की होड़ में आदमी ने मुखौटे को स्थायीभाव की तरह ग्रहण कर लिया।
मुखौटे से जुड़ा एक प्रसंग स्मरण हो आया है। तेज़ धूप का समय था। सेठ जी अपनी दुकान में कूलर की हवा में बैठे ऊँघ रहे थे। सामने से एक मज़दूर निकला; पसीने से सराबोर और प्यास से सूखते कंठ का मारा। दुकान से बाहर तक आती कूलर की हवा ने पैर रोकने के लिए मज़दूर को मजबूर कर दिया। थमे पैरों ने प्यास की तीव्रता बढ़ा दी। मज़दूर ने हिम्मत कर अनुनय की, ‘सेठ जी, पीने के लिए पानी मिलेगा?’ सेठ जी ने उड़ती नज़र डाली और बोले, ‘दुकान का आदमी खाना खाने गया है। आने पर दे देगा।’ मज़दूर पानी की आस में ठहर गया। आस ने प्यास फिर बढ़ा दी। थोड़े समय बाद फिर हिम्मत जुटाकर वही प्रश्न दोहराया, ‘सेठ जी, पीने के लिए पानी मिलेगा?’ पहली बार वाला उत्तर भी दोहराया गया। प्रतीक्षा का दौर चलता रहा। प्यास अब असह्य हो चली। मज़दूर ने फिर पूछना चाहा, ‘सेठ जी…’ बात पूरी कह पाता, उससे पहले किंचित क्रोधित स्वर में रेडिमेड उत्तर गूँजा, “अरे कहा न, दुकान का आदमी खाना खाने गया है।” सूखे गले से मज़दूर बोला, “मालिक, थोड़ी देर के लिए सेठ जी का मुखौटा उतार कर आप ही आदमी क्यों नहीं बन जाते?”
जीवन निर्मल भाव से जीने के लिए है। मुखौटे लगाकर नहीं अपितु आदमी बन कर रहने के लिए है।
सूत्रधार कह रहा है कि प्रदर्शन के पर्दे हटाइए। बहुत देख लिया पर्दे के आगे मुखौटा लगाकर खेला जाता नाटक। चलिए लौटें सामुदायिक प्रवृत्ति की ओर, लौटें बिना मुखौटों के मंच पर। बिना कृत्रिम रंग लगाए अपनी भूमिका निभा रहे असली चेहरों को शीश नवाएँ। जीवन का रंगमंच आज हम से यही मांग करता है।
विश्व रंगमंच दिवस की हार्दिक बधाई।
© संजय भारद्वाज
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
संजयउवाच@डाटामेल.भारत
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