श्री संजय भारद्वाज
(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के लेखक श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको पाठकों का आशातीत प्रतिसाद मिला है।”
हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों के माध्यम से हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ संजय उवाच # 234 ☆ ताकि सनद रहे
अक्टूबर 2023 की बात है। झारखंड के देवघर में स्थित ज्योतिर्लिंग के दर्शन का सौभाग्य प्राप्त हुआ। देवघर ऐसा तीर्थस्थान है जहाँ ज्योतिर्लिंग और शक्तिपीठ साथ-साथ हैं। देवघर से राँची की ओर लौटते समय परिजनों के साथ डुमरी में चाय पीने के लिए रुके। सड़क के दूसरी ओर कुछ छोटी-छोटी दुकानें थीं। सड़क पार कर मैं चाय की दुकान पर पहुँचा। बिस्किट, खाने-पीने का कुछ सामान, वेफर्स आदि दुकान में बिक्री के लिए थे। दुकान के सामने ही बड़ी-सी तंदूरनुमा अंगीठी थी, जिस पर दुकान का मालिक चाय बना रहा था। कुल मिलाकर ‘टू इन वन’ व्यवस्था थी। कुछ ग्राहक चाय तैयार होने की प्रतीक्षा में खड़े थे। कम चीनी की चाय का आर्डर देकर मैं भी प्रतीक्षासूची में सम्मिलित हो गया। तभी दुकान से सामान खरीदने के लिए एक ग्राहक आ गया। दुकानदार चाय छोड़कर दुकान में घुसा और ग्राहक को सामान देने लगा। इधर चाय उफनने पर आ गई। प्रतीक्षारत एक ग्राहक ने तपाक से चाय अंगीठी से उतार कर दूसरी ओर रख दी। दुकानदार आया और फिर चाय उबालने लगा।
बहुत सामान्य घटना थी किंतु यदि बड़े शहरों के परिप्रेक्ष्य में देखें, जहाँ होटल के दरवाज़े भी दरबान खोलते हों, वहाँ ग्राहक द्वारा उफनती चाय को चूल्हे से उतार कर रख देना, असामान्य ही कहा जाएगा।
स्मरण आता है कि प्रसिद्ध साहित्यकार गोविंद मिश्र जी ने किसी कार्यक्रम में एक क़िस्सा सुनाया था। वे एक बार सब्ज़ी खरीदने गए थे। खरीदारी के बाद संभवत: सौ का नोट सब्ज़ीवाले को दिया। इधर सब्ज़ीवाला सौ के नोट का छुट्टा लेने दूसरे सब्ज़ीवाले के पास गया, उधर एक ग्राहक ने आकर सब्ज़ी के दाम मिश्र जी से पूछे। मिश्र जी ने वही सब्ज़ी खरीदी थी। सो दाम बताए और ग्राहक ने जितनी सब्ज़ी मांगी, तराजू उठाकर तौल दी। मिश्र जी को जानने वाले कुछ लोगों ने इस घटना को देखा और उनकी यह सहजता चर्चा का विषय भी बनी।
वस्तुत: सहजता हमारा मूलभूत है। विसंगति यह कि अब सहजता को कृत्रिमता में बदलने की होड़ है। कहा जाता है कि आभिजात्य तो तुरंत आ जाता है पर गरिमा आने में समय लगता है। मनुष्य की गरिमा, मनुष्यता में है। आभिजात्य कितना ही सर चढ़कर बोले, स्मरण रखना कि मूलभूत में परिवर्तन नहीं होता, ‘बेसिक्स नेवर चेंज।’
सारा जीवन एयर कंडीशन में गुज़ारनेवाले का अंतिम संस्कार ‘एयरकंडीशंड’ नहीं हो सकता। दाह तो अग्नि में ही होगा। अग्नि मूलभूत है। छोटी से छोटी दूरी फ्लाइट से तय कर लो पर पैदल चलना सदा ‘बेसिक’ रहेगा। चेक-इन करते समय या हवाई अड्डे से बाहर आते हुए पदयात्रा तो करनी ही पड़ेगी।
सहजता अंतर्निहित है। अंतर्निहित को बदलने का प्रयास करोगे तो मनुष्य कैसे रह पाओगे? यह जो अहंकार ओढ़ते हो; पद-प्रतिष्ठा, कथित नाम का, सब का सब धरा रह जाता है। मृत्यु सब लील जाती है। अपनी लघुत्तम कथा ‘नो एडमिशन’ याद हो आई है। कथा कुछ इस प्रकार है-
“…. ‘नो एडमिशन विदाउट परमिशन’, अनुमति के बिना प्रवेश मना है, उसके केबिन के आगे बड़े-बड़े अक्षरों में लिखा था। निरक्षर है या धृष्ट, यह तो जाँच का विषय है पर पता नहीं मौत ने कैसे भीतर प्रवेश पा लिया। अपने केबिन में कुर्सी पर मृत पाया गया वह….।”
प्रकृति की दृष्टि में राजा या रंक किसी का अवशेष, विशेष नहीं होता। अपनी कविता ‘माप’ साझा करता हूँ-
काया का खेल सिमट गया है
अब होकर राख मुट्ठी भर..,
यह वही आदमी है,
जो खुद को माप की परिधि से
बड़ा समझना रहा जीवन भर …!
इसलिए कहता हूँ कि अभिजात्य से मुक्ति पाओ, अहंकार से मुक्ति पाओ। काया के साथ राख का समीकरण जीवन रहते समझ जाओ।
इस राख को याद रखोगे तो परिधि में रहना भी आ जाएगा। आगे चलकर यह राख भी नदी के पानी में समाकर विलुप्त हो जाती है। सनद रहे कि शाश्वत सत्य का स्मरण, मनुष्यता और मनुष्य की सहजता का विस्मरण नहीं होने देगा। इति।
© संजय भारद्वाज
(प्रातः 4:51बजे, 30.03.2024)
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
संजयउवाच@डाटामेल.भारत
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