सुश्री ऋता सिंह
(सुप्रतिष्ठित साहित्यकार सुश्री ऋता सिंह जी द्वारा ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए अपने यात्रा संस्मरणों पर आधारित आलेख श्रृंखला को स्नेह प्रतिसाद के लिए आभार।आज प्रस्तुत है आपकी डायरी के पन्ने से … – द ग्रेट नानी ।)
मेरी डायरी के पन्ने से… – बचपन की सुखद स्मृतियाँ
मनुष्य को ईश्वर की एक बहुत बड़ी देन है और वह है स्मरण शक्ति। यह बैंक में जमा की गई धन राशि के समान है! इसे जब चाहो खर्च करने का मौका देती है। इन्सान के बचपन की स्मृतियाँ भी कुछ ऐसी ही होती हैं। बाल्यकाल की घटनाओं को जब बड़े होने पर याद करते हैं तब कुछ और ही रसास्वाद का आनंद मिलता है। एक बार फिर बचपन में लौट जाने की तीव्र इच्छा होती है।
वैसे तो मेरे बचपन की कई सुखद स्मृतियाँ हैं जिन्हें याद कर मैं कभी कविता तो कभी लघु कथाएँ लिखती हूँ और फिर बचपन के सागर में डूबती – तैरती हूँ। पर आज मैं आप सबके साथ अपना एक अनुभव साझा करती हूँ।
अपने बचपन में मैं टॉम बॉय थी। भाई के दोस्त ही मेरे भी दोस्त हुआ करते थे। उन दिनों हम चतु:शृंगी के पास अंबिका सोसायटी में रहते थे। कॉलोनी बंगलों की कॉलोनी थी। कई हमउम्र लड़कियाँ भी थीं जिनके साथ सागर गोटे, पिट्ठुक, भातुकुली आदि का भी मैं आनंद लेती थी पर लड़कों के साथ खेलना शायद और चैलेंजिंग था।
नियमित रूप से चतुरश्रृंगी पहाड़ के ऊपर चढ़ा भी करते थे। होड़ लगाते थे कि कौन सबसे पहले ऊपर चढ़े।
उन दिनों मोहल्ले के लड़के गुल्ली डंडा, कंचे, गुलैल, पतंग, लट्टू आदि से अधिक खेलते थे।
दुख की बात है कि आज ये खेल गँवारों के खेल समझे जाते हैं।
उन दिनों मेरी उम्र नौ वर्ष रही होगी। लड़कों में अपनी जगह बनाने के लिए मैं अपने दादा के हाफ़ पैंट पहनती थी। घर पर किसी ने टोका नहीं, शायद टॉम बॉय सी थी और छोटी थी यह सोचकर कुछ न बोले होंगे। हमारे वस्त्र हमारे व्यक्तित्व की पहचान होते हैं। मुझे भी पैंट पहनकर खेलने में आसानी होती थी। लड़कों के साथ भिड़ जाने में और आवश्यकतानुसार उनकी कुटाई करने में भी आसानी होती थी।
शुरू – शुरू में तो मैं दादा के पीछे – पीछे रही पर धीरे – धीरे सबके साथ घुल-मिल गई फिर खेलने और जूझने की बुद् धि व क्षमता दोनों बढ़ गई। पैंट की जेबों में ढेर सारे कंचे होते, कुछ खेलते समय जीते हुए और कुछ दादा की नज़रें बचाकर उनकी पैंट की जेबों से चुराए हुए! उस वक्त कभी चोरी का अहसास न हुआ न गिल्ट फीलिंग्स ही। जहाँ मौक़ा मिला ज़मीं पर उँगली से गहरे छेद बनाकर पारंगतता हासिल करने के लिए एकलव्य की तरह अकेले में ही कंचे खेलने का अभ्यास करती रहती ताकि खूब कंचे बटोर सकूँ। घुटने इतने गंदे, बेढब और छिले से होते मानो खेत में काम करनेवाले किसी मज़दूर के घुटने हों। माँ डाँटती तो हौज के पानी से पैर धो लेती और साफ घर को धूल मिट् टी से भर देती।
मैं बचपन में शरारतों से पटी हुई थी।
कंचे, गिल्ली – डंडा खेलना आ गया तो अब गुलैल चलाने की बारी आई। दादा के मित्र मेरे मित्र थे इनमें कुछ हमउम्र भी थे। अंबिका सोसाइटी में सबके घर में खूब बाग बगीचे थे। आम, जामुन, आँवले, अमरूद आदि के पेड़ लगे थे। सभी वृक्ष खूब फल देते। एक दिन दोपहर के समय दो मित्र आए, कहा चलो आँवले तोड़ते हैं। मैं भी साथ हो ली। अपने घर के पिछवाड़े एक घर में खूब आँवले लगे थे। हम चुपके से वहाँ पहुँचे। उन दोनों ने कहा देखें तेरा निशाना कैसा है। मैं भी तैयार थी। पास के ही दूसरे एक वृक्ष पर चढ़कर गुलैल साधकर आँवले तोड़ने लगी। दो चार टपके भी, हिम्मत बढ़ गई। उन दिनों मैं नौ सीखिए थी, अभी अचूक निशाने मारने में माहिर न थी। बस निशाना चूका और बंगले की खिड़की के शीशे झनाझनाकर कुछ घर के फ़र्श पर और कुछ बगीचे में गिरे।
दोनों साथी मुझे वहीं छोड़ फरार हो गए और मैं अभी भी पेड़ से छलांग लगा कर उतर ही रही थी कि उस घर के दादजी जिन्हें हम सब आजोबा कहते थे, घर से बाहर आ गए। पहले तो कान पकड़कर मरोड़ा, फिर उच्च पदस्थ पिता की बेटी होकर आँवले चुराने पर भर्त्सना मिली फिर लड़की होकर लड़कों के साथ न खेलने की नसीहत मिली। मैं अपना सा मुँह लेकर घर लौट आई। दोनों मित्रों की कुटाई की तीव्र इच्छा लिए।
शाम को बाबा दफ़्तर से घर लौटे तो चेहरा तमतमाया हुआ था। मैं समझ गई आजोबा ने शिकायत की थी। बाबा खूब नाराज़ हुए। मार पड़ी सो अलग। गाल पर तड़ा तड़ थप्पड़ पड़े़ और पैर की पिंडलियाँ बेंत खाकर ऐसे काले हुए मानो कोयले की खान में काम करनेवाले किसी मज़दूर के पैर हों। पर जो सज़ा मिली वह भयंकर थी। बाबा ने हुक्म दिया कि मैं आजोबा के घर के बाहर पड़े काँच के टुकड़े चुनकर सब साफ़ करूँ वह भी रात होने से पहले।
स्वभाव से मैं बहुत ज़िद् दी थी। बाबा के हुक्म का पालन किया और उसके बाद भीष्म प्रतिज्ञा भी ली कि आजोबा के बगीचे के सारे आंवले नोच दूँगी। कुछ दिनों तक घर से बाहर न निकली पर दिमाग़ में योजना चलती रही।
फिर प्रारंभ हुआ अभ्यास!! घर में जितने हैंडल टूटी प्यालियाँ थीं उन्हें हौज पर रखकर गुलैल मारकर उन्हें फोड़ने का अभ्यास शुरू कर दिया। माँ ने कुछ एल्यूमीनियम के बर्तन रख छोड़े थे, बर्तनवाले को देने के लिए। मैंने गुलैल मारकर उनका हुलिया बदल डाला। उनके पैंदे कैसे थे पहचान से बाहर हो गए!! थोड़े ही समय में आँवला तो क्या आम, अमरूद इमली तोड़ना भी सीख गई वह भी सबकी नज़रें बचाकर।
शायद इस निशानेबाजी की आदत ने मेरे भीतर साहस का संचार किया और फर्ग्यूसन कॉलेज में पढ़ाई के साथ NCC में मैं भर्ती हो गई। इसी आदत ने मुझे रायफल शूटिंग का मौका दिया और 1976 में महाराष्ट्र के बेस्ट केडेट का गौरव मिला!!!
आज पलटकर जब सोचती हूँ तो फिर एक बार बचपन में लौट जाने को जी चाहता है। आज न आँवले के पेड़ हैं न गुलैल अगर कुछ बचा है तो वह है सुखद स्मृतियों का विशाल जाल जिसमें एक मकड़ी की तरह हम इस उम्र में फँसे हुए हैं। अब तो यही कहने को दिल करता है कि कोई लौटा दे मेरे बीते हुए दिन…
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