सुश्री अनुभा श्रीवास्तव
(सुप्रसिद्ध युवा साहित्यसाहित्यकार, विधि विशेषज्ञ, समाज सेविका के अतिरिक्त बहुआयामी व्यक्तित्व की धनी सुश्री अनुभा श्रीवास्तव जी के साप्ताहिक स्तम्भ के अंतर्गत हम उनकी कृति “सकारात्मक सपने” (इस कृति को म. प्र लेखिका संघ का वर्ष २०१८ का पुरस्कार प्राप्त) को लेखमाला के रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं। साप्ताहिक स्तम्भ – सकारात्मक सपने के अंतर्गत आज अगली कड़ी में प्रस्तुत है “मुखिया मुख सो चाहिये”। इस लेखमाला की कड़ियाँ आप प्रत्येक सोमवार को पढ़ सकेंगे।)
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☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सकारात्मक सपने # 38 ☆
☆ मुखिया मुख सो चाहिये☆
देश की आजादी से पहले स्वतंत्रता के आंदोलन हुये. आजादी पाने के लिये क्रांतिकारियों ने अपनी जान की बाजियां लगा दी. अनेक युवा हँसते-हँसते फांसी के फंदे पर झूल गये. सत्य की जीत और आजादी पाने के लिये महात्मा गांधी ने असहयोग आंदोलन, अनशन, उपवास, अहिंसा का एक सर्वथा नया मार्ग प्रशस्त किया. देश स्वतंत्र हुआ, अंग्रेजों को भारत छोड़ना पड़ा. लेकिन प्रश्न है कि वह क्या कारण था कि देश का हर व्यक्ति आजादी चाहता था? उन दिनो तो शहरो में बसने वाले देश के संपन्न वर्ग के लोग आसानी से विदेशो से शिक्षा ग्रहण कर ही लेते थे, राज परिवारो, जमीदारों, अधिकारियों, उच्च शिक्षित अभिजात्य वर्ग के लोगो के अंग्रेजो से सानिध्य के लिये हर शहर कस्बे में क्लब थे. सुसंपन्न चाटुकार महत्वपूर्ण लोगो को रायबहादुर वगैरह के खिताब भी दिये जाते थे. गांवो की जनसंख्या तो अंग्रेजो के शासन में शहरी आबादी से कहीं ज्यादा थी और, “है अपना हिंदुस्तान कहाँ? वह बसा हमारे गांवो में”. गांवो से सत्ता का अधिकांश नाता केवल लगान लेने का ही था. संचार के साधन बहुत सीमित थे. लोगो की जीवन शैली में संतोष और समझौते की प्रवृत्ति अधिक बलवान थी, लोग संतुष्ट थे. फिर क्यों आजादी की लड़ाई हुई ? बिना बुलाये जन सभाओ में क्यो लोग भारी संख्या में एकत्रित होते थे ? अपना सर्वस्व न्यौछावर करके भी वह पीढ़ी आजादी क्यो पाना चाहती थी? इसका उत्तर समर्थ एवं समृद्ध भारत हेतु मूल्य आधारित शासन एवं प्रशासन की अवधारणा ही है.
आजादी के रण बांकुंरो की आत्मायें यदि बोल सकती, तो वे यही कहती कि उनने एक समर्थ तथा समृद्ध भारत की परिकल्पना की थी. आजादी का निहितार्थ यही था कि एक ऐसी शासन प्रणाली लागू होगी जिसमें संस्कार होगें. सत्य की पूछ परख होगी. राम राज्य की आध्यात्मिकता जिसके अनुसार “मुखिया मुख सो चाहिये खान पान कहुं एक, पालई पोसई सकल अंग तुलसी सहित विवेक ” वाले अधिकारी होंगे.देश का संविधान बनते और लागू होते तक यह विचार प्रबल रहा तभी तो “जनता का, जनता के लिये जनता के द्वारा ” शासन हमने स्वीकारा. पर उसके बाद कहीं न कहीं कुछ बड़ी गड़बड़ हो गई. आजादी के बाद से देश ने प्रत्येक क्षेत्र में विकास किया. जहाँ एक सुई तक देश में नहीं बनती थी, और हर वस्तु “मेड इन इंग्लैंड” होती थी. आज हम सारी दुनिया में “मेक इन इण्डिया” का नारा लगा पाने में सक्षम हुये हैं. हमारे वैज्ञानिको ने ऐसी अभूतपूर्व प्रगति की है कि हम चांद और मंगल तक पहुँच चुके हैं. अमेरिका की सिलिकान वैली की सफलता की गाथा बिना भारतीयो के संभव नहीं दिखती. पर दुखद है कि आजादी के बाद हमारे समाज का चारित्रिक अधोपतन हुआ. आम आदमी ने आजादी के उत्तरदायित्वो को समझने में भारी भूल की है. हमने शायद स्वतंत्रता का अर्थ स्वच्छंदता लगा लिया.
सर्वमान्य सत्य है कि हमेशा से आदमी किसी न किसी डर से ही अनुशासन में रहता आया है. भगवान के डर से, अपने आप के डर से या राजा अर्थात शासन के डर से. सच ही है “भय बिन होई न प्रीति “. आजादी के बाद के दशको में वैज्ञानिक प्रगति ने भगवान के कथित डर को तर्क से मिटा दिया.
भौतिक सुख संसाधनो के बढ़ते माया जाल ने लोगो को संतुष्टि से “जितना चादर है उतने पैर फैलाओ” की जगह पहले पैर फैलाओ फिर उस नाप के चादर की व्यवस्था करो का पाठ सीखने के लिये विवश किया है. इस व्यवस्था के लिये साम दाम दण्ड भेद, नैतिक अनैतिक हर तरीके के इस्तेमाल से लोग अब डर नहीं रहे. “ॠणं कृत्वा घृतं पिवेत् ” वाली अर्थव्यवस्था से समाज प्रेरित हुआ. राजा शासन या कानून का डर मिट गया है क्योकि भ्रष्टाचार व्याप्त हुआ है, लोग रुपयो से या टेलीफोन की घंटियो के बल पर अपने काम करवा लेने की ताकत पर गुमान करने लगे हैं. जिन नेताओ को हम अपनी सरकार चलाने के लिये चुनते हैं वे हमारे ही वोटो से चुने जाने बाद हम पर ही रौब गांठने के हुनर से शक्ति संपन्न हो जाते हैं, इस कारण चुनावी राजनीति में धन व बाहुबल का बोलबाला बढ़ता जा रहा है. राजनेता सरकारी ठेकों, देश की प्राकृतिक संपदा के दोहन, सार्वजनिक संपत्तियों को अपनी बपौती मानने लगे हैं. पत्रकारिता को लोकतंत्र के चौथे स्तंभ की मान्यता दी गई क्योकि कलम से जनअधिकारो की रक्षा की अपेक्षा थी किंतु पूंजीपतियो तथा राजनेताओ ने इसका भी अपने हित में दोहन किया है.अनेक मीडिया हाउस तटस्थ होने की जगह पार्टी विशेष के प्रवक्ता के रूप में सक्रिय हैं. आम जनता दिग्भ्रमित है हर बार चुनावो में वह पार्टी बदल बदल कर परिवर्तन की आशा करती है पर नये सिरे से ठगी जाती है. इस तरह भय हीन समाज निरंकुश होता जा रहा है.
लेकिन सुखद बात यह है कि आज भी जनतांत्रिक मूल्यो में देश में गहरी आस्था है. हमारे देश के चुनाव विश्व के लिये उदाहरण बने हैं. इसी तरह न्यायपालिका के सम्मान की भावना भी हमारे समाज की बहुत बड़ी पूंजी है. समर्थ एवं समृद्ध भारत हेतु मूल्य आधारित शासन एवं प्रशासन की स्थापना व वर्तमान समाज में सुधार हेतु आशा की किरण कानून और उसके परिपालन के लिये उन्नत टेक्नालाजी का उपयोग ही सबसे कारगर विकल्प दिखता है. अंग्रेजो के समय के लचर राज पक्षीय पुराने कानूनो की विस्तृत विवेचना समय के साथ जरूरी हो चुकी है. नियम उपनियम,पुराने फैसलो के उदाहरण, कण्डिकायें इतनी अधिक हो गईं है कि नैसर्गिक न्याय भी कानून की किताबों और वकील साहब की फीस के मकड़जाल में उलझता जा रहा है. एक अदालत कुछ फैसला करती है तो उसी या उस जैसे ही प्रकरण में दूसरी अदालत कुछ और निर्णय सुनाती है. आज समय आ चुका है कि कानून सरल, बोधगम्य और स्पष्ट बनें. आम आदमी भी जिसने कानून की पढ़ाई न की हो नैसर्गिक न्याय की दृष्टि से उनहें समझ सके और उनका अमल करे. समाज में नियमों के परिपालन की भावना को सुढ़ृड़ किया जाना जरूरी हो चुका है.आम नागरिको के नियमो के पालन को सुनिश्चित करने के लिये प्राद्योगिकी व संचार तकनीक का सहारा लिया जाना उपयुक्त है. हमारी पीढ़ी ने देखा है कि किस तरह रेल रिजर्वेशन में कम्प्यूटरीकरण से व्यापक परिवर्तन हुये, सुविधा बढ़ी, भ्रष्टाचार बहुत कम हुआ. वीडियो कैमरो की मदद से आज खेल के मैदान पर भी निर्णय हो रहे हैं, जरूरी है कि सार्वजनिक स्थानो, कार्यालयों में और तेजी से कम्प्यूटरीकरण किया जावे, संचार तकनीक से आडियो वीडियो निगरानी बढ़ाई जावे. इस तरह न केवल अपराधो पर नियंत्रण बढ़ेगा वरन आजादी के सिपाहियो द्वारा देखी गई समर्थ एवं समृद्ध भारत हेतु मूल्य आधारित शासन एवं प्रशासन की अवधारणा मूर्त रूप ले सकेगी. कानून व तकनीकी निगरानी के चलते जनता, अधिकारी या नेता हर कोई मूल्य आधारित संस्कारित व्यवहार करने पर विवश होगा. धीरे धीरे यह लोगो की आदत बन जायेगी. यह आदत समाज के संस्कार बने इसके लिये शिक्षा के द्वारा लोगों के मन में भौतिक की जगह नैतिक मूल्यो की स्थाई प्रतिस्थापना की जानी जरूरी है. जब यह सब होगा तो आम आदमी आजादी के उत्तरदायित्व समझेगा स्वनियंत्रित बनेगा,अधिकारी कर्मचारी स्वयं को जनता का सेवक समझेंगे और नेता अनुकरणीय बनेंगे. देश में अंतिम व्यक्ति तक सुशासन पहुंचेगा. देश में प्राकृतिक या बौद्धिक संसाधनो की कमी नहीं है, जरूरत केवल यह है कि मूल्य आधारित प्रणाली से देश के विकास को सही दिशा दी जावे. भारत समर्थ है, हमारी पीढ़ी को इसे समृद्ध भारत में बदलने का सुअवसर समय ने दिया है, इस हेतु मूल्य आधारित शासन एवं प्रशासन की स्थापना जरूरी है. इस अवधारणा को लागू करने के लिये हमें कानून व प्रौद्योगिकी का सहारा लेकर क्रियान्वयन करने की आवश्यकता है.
© अनुभा श्रीवास्तव्