हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 37 – लघुकथा – ममता ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत हैं  एक अनुकरणीय, प्रेरक  एवं मार्मिक लघुकथा  “ममता’”।  विधि की यह  कैसी विडम्बना है कि-  एक माँ  अपनी ममता को कुचलकर अपने बच्चे को कूड़े के ढेर में फेंक देती है  तथा दूसरी ओर एक  माँ  अपने हृदय में अपार ममता लिए एक बच्चे के लिए तरस जाती है।  श्रीमती सिद्धेश्वरी जी  की यह लघुकथा समाज के ऐसे  लोगों को आइना दिखाती है । यह  भावुक एवं मार्मिक लघुकथा  भी सहज ही हमारे नेत्र नम कर देती है। श्रीमती सिद्धेश्वरी जी  ने  मनोभावनाओं  को बड़े ही सहज भाव से इस  लघुकथा में  लिपिबद्ध कर दिया है ।इस अतिसुन्दर  लघुकथा के लिए श्रीमती सिद्धेश्वरी जी को हार्दिक बधाई। 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 37 ☆

☆ लघुकथा – ममता 

बच्चों वाला अस्पताल, हमेशा भीड़ भाड़। छोटे-बड़े बच्चों से भरा वार्ड। किसी की हालत बहुत नाजुक तो कोई रो रो परेशान। कुल मिलाकर सभी माँ पिता जी और उनका परिवार, सभी परेशान। कुछ चिड़चिड़ाते गुस्सा करते नजर आते कि ठीक से संभाल नहीं सकती हो।

पीछे गटर और कचरे का ढेर। शायद अनुमान नहीं लगा सकते कि कितनी गंदगी फैली रहती है। सफाई कर्मचारी साफ सफाई कम निर्देश ज्यादा देते नजर आते हैं।

ऐसे ही एक महिला कर्मचारी आया बाई ‘माया’ जो बहुत ही शांत स्वभाव की। सभी का काम करती और सभी बच्चों को बहुत ध्यान से बहला फुसलाकर दवाई देने व इंजेक्शन लगवाने में मदद करती थी। सभी उसकी काम की तारीफ करते।

माया नाम था उसका। सच में ममता और माया से परिपूर्ण थी। परंतु उसकी अपनी कहानी बहुत दुखद थी। पति हमेशा इसलिए लड़ाई-झगड़ा करता था कि “तुम्हारे बच्चे नहीं हो रहे हैं”। इसलिए वह पति को छोड़ चुकी थी और बच्चे वाले वार्ड में अपने जीवन यापन करने के लिए काम कर अपना मन बहलाती थी और पति से अलग रहने लगी थी।

कुछ समय बाद एक ठंड से ठिठुरती रात में पीछे कचरे के ढेर से हल्की हल्की सी रोने की आवाज आ रही थी। जैसे कोई पिल्ला रो रहा हो। सभी ने सोचा कुत्ते का बच्चा ठंड से रो रहा होगा। परंतु माया रात पाली में ड्यूटी कर रही थी। उससे रहा नहीं गया। वह वाचमेन को उठाकर कचरे के ढेर के पास जा पहुंची। टार्च की रोशनी से देख ढूंढने लगी।

उसने देखा कि एक नन्हीं सी जान – एक मासूम बच्ची जिसके शरीर पर कपड़ा भी नहीं था। कचरे के ढेर में पड़ी है और उसी के रोने की आवाज आ रही थी। शरीर पर चोट के निशान थे। माया की ममता फूट पड़ी। तुरंत ही उसने, उसे निकाल कर छाती से लगाया और बदहवास सी डॉक्टर की केबिन की ओर दौड़ पड़ी।

कब उसने दो मंजिल तय कर ली उसे पता ही नहीं चला। डॉक्टर ने पूछताछ शुरू की माया रोने लगी “मेरी बच्ची को बचा लीजिए… मेरी बच्ची को बचा लीजिए.. डॉक्टर साहब मेरी बच्ची को बचा लीजिए“। डॉ ने उसकी स्थिति को देखकर तुरंत इलाज शुरु कर दिया जिससे बच्ची खतरे से बाहर हो गई।

माया तो जैसे इसी दिन का इंतजार कर रही थी। उसने डाक्टर साहब से कई कई बार कहा “डॉक्टर साहब इस बच्ची पर सिर्फ मेरा अधिकार है, आप समझ रहे हो ना, सिर्फ मेरा अधिकार है, आप साक्षी हैं मैंने इसे कचरे के ढेर से पाया है, इस पर सिर्फ मेरा अधिकार है”।

डॉक्टर साहब भी मां की ममता के आगे विवश थे। उसने पुलिस के हस्तक्षेप के बाद उस बच्ची का माता का नाम” माया” लिख दिया और पक्की मोहर लगा दी। माया की वर्षों की सेवा सफल हो गई। उसकी गोद में नन्हीं बिटिया मिल गई। अब वह बांझ नहीं कहलाएगी।  अब वह एक बच्चे की मां बन चुकी थी ।  बिटिया को सीने से लगाए आज इस दुनिया में सबसे सुखी इंसान थी। कभी वह अपने को और कभी अपनी बिटिया को देखते-देखते  बार-बार आंखों से आंसू गिरा रही थी।

 

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश