श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’
(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा “रात का चौकीदार” महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय कविता “आत्मस्थ….” ।)
☆ तन्मय साहित्य #229 ☆
☆ आत्मस्थ…. ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆
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हाँ, मैंने तोड़ी है रूढ़ियाँ
लाँघी है सीमाएँ
छोड़ दी है कई अंध परंपराएँ।
रूढ़ियाँ –
जिन्होंने मुझे बाँध रखा था।
सीमाएँ –
जिसमें मैं सिमट गया था
रूढ़ियाँ –
जिनने मुझे भीरू बना दिया था,
मुक्त हूँ मैं अब बंधनों से
दूर हूँ औपचारिक वंदनों से
विचरता हूँ मुक्त गगन में
नहीं रही अपेक्षाएँ मन में
सुख मिलने पर
अब खुशी से उछलता नहीं
दूसरों का वैभव देख
ईर्ष्या से जलता नहीं,
दुख के क्षणों में
अब रोना नहीं आता
आत्ममुग्ध हो कभी
खुद पर नहीं इतराता
विषयी संस्कारों के
नए बीज बोता नहीं हूँ
स्वयं से दूर
कभी होता नहीं हूँ,
अब आ जाती है मुझे नींद
जब मैं सोना चाहता हूँ
हो जाता हूँ निर्विचार
जब होना चाहता हूँ,
इनसे उनसे आपसे
मधुर संबंध है
न कोई राग न विराग
जीवन
एक मीठा सा छंद है
दर्द भी है दुख भी है
प्यास है भूख भी है
बावजूद इन सब के
सब कुछ निर्मल है
जीवन में अब जो भी
शेष है-
स्वयं का आत्म बल है।
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© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’
जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश, अलीगढ उत्तरप्रदेश
मो. 9893266014
≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈