श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है स्त्री विमर्श पर आधारित एक विचारणीय लघुकथा “बोझिल पहचान”।) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 191 ☆

🌻 लघुकथा – बोझिल पहचान 🌻

किसी भी व्यक्ति की सुंदरता, उसका व्यक्तित्व, मीठी वाणी, निश्चल व्यवहार, और सादगी से सँवरता हुआ परिधान। हजारों की भीड़ में उसे अलग दिखा सकता है। उसे अपनी पहचान बनाने की जरूरत नहीं है। ज्ञानी के ज्ञान का परचम धीरे-धीरे ही सही बढ़ता और महकता जरूर है।

जीवन का सरल होना आज के समय पर ज्यादा कठिन है क्योंकि सभी नर-नारी अपने संपूर्ण जीवन को बोझिल बन चुके हैं। जरूरत से ज्यादा उदासीनता, ऊपरी दिखावा, मेल मिलाप की कमी और अपने निष्ठुर व्यवहार को यहाँ-वहाँ प्रदर्शित कर अपनी पहचान को छुपा चुके हैं।

वह शायद एक तराशी हुई सुंदर आकर्षक व्यक्तित्व की धनी लगती थी। जिसे कुछ भी कह सकते थे। जब भी वह बाहर निकलती। अपनी आकर्षक मुस्कान बड़ी-बड़ी आँखे केश के सुंदर लट बिखरे हुए, चेहरे पर बनावटी सुंदर मुस्कान, कानों के सहारे मोती माला में झूलते चश्के अंदर से निहारते नयन और उसकी बातों से सभी को लगता शायद यह एक दमदार और सच्ची महिला है।

कई महिलाएं उसके झांसे में आ जाती। परंतु आज अचानक एक भोली- भाली महिला उसकी बातों में आकर उस देवी जी के घर पहुंच गई।

अनजाने लोग, अचानक का समय उसने शायद उसकी कल्पना नहीं की थी। घर के अंदर से खिड़की से झाँक कर उसे लगा शायद वह महिला को कुछ पता नहीं चलेगा।

जैसे ही माननीया ने दरवाजा खोला बिना लेंस के टटोलती हाथों में कापी पेन, सर पर छोटे-छोटे घास फूल जैसे बाल, हाथ पैर झुलसे और परिधान से जाने किस समय से उसने स्नान नहीं किया था।

बस देखते ही बरस पड़ी आपको बिना बताए नहीं आना चाहिए।

अतिथि महिला ने तत्काल कहा… तभी तो आपकी पहचान हो पाई है। आप कितना अपनी पहचान बोझिल बनाकर चल रही हैं।

स्वयं भी उसमें उलझी हुई हैं और दूसरों को भी उलझा कर रखी हैं। आप सादगी और असली पहचान में रहती तो शायद मेरी सद्भावना आपके लिए और होती, परंतु जो स्वयं नकली और नकली मुखौटा लगाकर दुनिया को बेवकूफ बना रही है, वह क्या किसी को समझ पाएगी।

कहती हुई वह महिला बाहर निकलने लगी। महोदया को हजारों रुपए के लटकते नकली केश, इधर-उधर बिखरे मेकअप का सामान आज बिना माल के नजर आने लगा।

जो एक गरीब महिला उसे दो टके का जवाब देकर चली गई। अपनी पहचान के लिए वह आईने के सामने खड़ी थी।

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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