श्री राकेश कुमार
(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” आज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)
☆ आलेख # 83 ☆ देश-परदेश – रिंकल्स अच्छे है! ☆ श्री राकेश कुमार ☆
हमारे देश में किसी वस्तु या अन्य पदार्थ के विज्ञापन की टैग लाइन जब प्रसिद्धि के उच्चतम शिखर पर पहुंच जाती है,तो लोग लंबे समय तक जनमानस के दिलों में अपना स्थान बना लेती हैं। “दाग अच्छे है” टैग लाइन भी उन प्रसिद्धि पा चुके में से एक हैं।
हमारे देश की सी एस आई आर जोकि एक वैज्ञानिक संस्था है,ने अपने कर्मचारियों का अव्वाहन किया है, कि प्रत्येक सोमवार के दिन वो बिना स्त्री(प्रेस) किए हुए वस्त्र पहनकर कार्बन की खपत में कटौती कर जन मानस को एक उदहारण प्रस्तुत कर जुगरूकता पैदा करें। हमारा देश विश्व के सबसे अधिक कार्बन खपत करने वाले देशों में अग्रणी हैं।
बचपन में हम पाठशाला गणवेश को सोते समय तकिए के नीचे या लोहे के संदूक के नीचे रखकर उसके रिंकल्स दूर कर लिया करते थे। धन के अपव्यय के साथ ही साथ कार्बन की खपत कम होती थी। बिजली से चलने वाली प्रेस सभी घरों में उपलब्ध है। आजकल एक नए प्रकार की स्टीम प्रेस भी आ गई है, जिसमें हैंगर पर टंगे हुए कपड़े भी प्रेस किए जा सकते हैं। प्रेस के कार्य में संलग्न धोबी आजकल जुगाड द्वारा एल पी जी गैस से भी कपड़े प्रेस करते हैं। कच्चे कोयले के उपगोग कर प्रेस का चलन कम हो गया हैं।
कपड़ो की सलवटे तो प्रेस से दूर हो जाती हैं। बिस्तर पर पड़ी हुई सलवटें, रात्रि नींद न आने पर करवट बदलने की गवाह बन जाती हैं। हमारे फिल्म वाले इस बात को अनेक गीतों के माध्यम से भुना चुके हैं।
कुछ समय पूर्व हमारे एक मित्र ने एक महंगी कमीज़ खरीदी थी, जिसकी वकालत विक्रेता ने ये कहकर की थी, ये “रिंकल फ्री” कमीज़ हैं। इसको प्रेस करने की आवश्यकता नहीं है, वो तो बाद में ज्ञात हुआ कि कमीज़ के साथ रिंकल्स फ्री में दिए जा रहे हैं।
कपड़े, बिस्तर आदि के रिंकल्स तो आप ठीक कर लेते हैं। हमारे जीवन के अंतिम पायदान के समय शरीर पर विकसित हो गई झुर्रियां शायद ये बयां करती हैं,” समय जिन राजपथों से होकर गुजरता है, बोलचाल की भाषा में उन्हें ही झुर्रियां कहते हैं।
© श्री राकेश कुमार
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