श्री संजय भारद्वाज
(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के लेखक श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको पाठकों का आशातीत प्रतिसाद मिला है।”
हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों के माध्यम से हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ संजय उवाच # 242 ☆ उल्टे पैरों की यात्रा
घर की बालकनी में रखें पौधों में नियमित रूप से पानी डालता हूँ। असीम धरती छुड़वाकर गमले की थोड़ी-सी मिट्टी में इन्हें हम लाए हैं। भरण-पोषण के लिए ये अब हम पर निर्भर हैं। ऐसे में इन्हें समुचित जल, खाद आदि उपलब्ध कराना हमारा धर्म हो जाता है।
गमलों के नीचे प्लेट रखी हुई हैं। गमले से बहकर पानी प्लेट में जमा हो जाता है। जब कभी पौधे को आवश्यकता नहीं होती, तब सीधे प्लेट में पानी भर देता हूँ। इसके चलते पक्षी पानी पी सकते हैं।
इस नियमितता के अनेक लाभ हुए हैं। जब कभी मैं पात्र में जल लेकर बालकनी में पहुँचता हूँ तो मुंडेर या सामने के पेड़ों पर बैठे कबूतरों को प्रतीक्षारत पाता हूँ। मुझे देखते ही कुछ यहाँ से वहाँ उड़ने लगते हैं तो कुछ फड़फड़ाने लगते हैं। पौधों में जल डालते समय कुछ निकट आकर देखते हैं कि जल नीचे प्लेट तक पहुँचा या नहीं। उल्लेखनीय संख्या में कबूतर पानी पीने आते हैं। उनमें से कुछ तो इतना हिल-मिल गए हैं कि साथ के पौधे में पानी डाला जा रहा हो, उनके पंख को हाथ छू जाए तो भी उड़ते नहीं। हमारा फ्लैट ऊँचाई पर होने, ग्रिल के चलते मिलती सुरक्षा और बागबान के इरादे समझ चुकने के बाद वे निश्चिंत होकर पानी पीने लगे हैं। उन्हें आकंठ तृप्त होते देखना सचमुच सुखद है।
एक नकचढ़ा कौआ भी है। मैं सामान्यतः सुबह साढ़े आठ बजे पौधों में पानी डालता हूँ। यदि पौने नौ बज गए तो वह ग्रिल पर बैठकर काँव-काँव मचा देता है। मानो याद दिला रहा हो या कर्कश स्वर में अपना नाराज़गी प्रकट कर रहा हो। जब मैं जल लेकर पहुँचता हूँ तो अपनी बड़ी-बड़ी आँखों से मुझे क्रोध से देखता है। पानी पीने के बाद भी वह दो-तीन बार काँव-काँव करता है। अलबत्ता दोनों काँव-काँव के स्वर और भाव में अंतर है। तृप्त होने हो जाने के बाद फिर से एक बार अपनी बड़ी-बड़ी आँखों से मुझे देखता है और उड़ जाता है।
हाँ, ततैयों का एक समूह भी है। संभव है कि परिवार हो। चार या पाँच ततैया एक साथ आते हैं। कई बार चेहरे के आसपास मंडरा रहे होते हैं पर काटा कभी नहीं। पानी डालने के बाद अपने पसंदीदा पौधे की प्लेट के किनारे बैठते हैं। एक बार चारों ओर देखते हैं, फिर झुक कर पानी पीते हैं। पानी पीने के बाद एक बार फिर चारों ओर देखते हैं और उड़ जाते हैं।
इसी तरह भौंरों का पनघट भी यही है। लम्बी पूँछ वाले कुछ रंग-बिरंगे चीड़े-चिड़िया भी अपने प्रजनन काल में यहीं डेरा डालते हैं। कभी-कभार गौरैया भी दर्शन दे जाती है।
प्रकृति सामासिक है, प्रकृति समन्वय चाहती है। इस समन्वय को कोयल के अंडे सेनेवाली मादा कौआ जानती है, समझती है, निभाती है। अन्य अनेक प्राणियों के भी ऐसे उदाहरण हैं। सब मिलकर प्रकृति की सामासिक शृंखला में अपनी भूमिका निभा रहे हैं।
इस निर्वाह का सबसे बड़ा दायित्व मनुष्य पर है। दुखद है कि एक समय समन्वयक की भूमिका निभानेवाला मनुष्य, अब प्रकृति के प्रति अपने कर्तव्य से दूर होता जा रहा है। उसकी यात्रा उल्टे पैरों से होने लगी है।
कुआँ, पेड़,
गाय, साँप,
सब की रक्षा को
अड़ जाता था,
प्रकृति को माँ-जाई
और धरती को
माँ कहता था..,
अब कुआँ, पेड़,
सब रौंद दिए,
प्रकृति का चीर हरता है,
धरती का सौदा करता है,
आदिमपन से आधुनिकता
उत्क्रांति कहलाती है,
जाने क्यों मुझे यह
उल्टे पैरों की यात्रा लगती है!
इस यात्रा को सही दिशा देना और अपनी भूमिका का समुचित निर्वहन करना हर मनुष्य से वांछनीय है।
© संजय भारद्वाज
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
संजयउवाच@डाटामेल.भारत
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≈ संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈