प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित एक भावप्रवण रचना  – “आदमी कितना भोला है, नादान है…। हमारे प्रबुद्ध पाठकगण प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे।) 

☆ काव्य धारा # 181 ☆ ‘अनुगुंजन’ से – हार कैसे मान लूँ मैं ?… ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

साफ दिखती जीत को ही हार कैसे मान लूं मैं ?

आ रहे मुधुमास को पतझार कैसे मान लूं मैं ??

 

हर अँधेरे में उजाले की कहीं सोई किरण है

तपन के ही बाद होता चाँदनी का आगमन है

देखता कुछ, बोलता कुछ, साफ जो कुछ कह न पाता

उस जगत के कथन का एतबार कैसे मान लूं मैं ।। १ ।।

 

आज अपनी जीत को ही हार को भी

जीत का पर्याय ही मैं मानता हूं

अश्रु पूर्वाभास हैं मुस्कान के मैं जानता हूं ।।

शब्द के संदर्भगत निहितार्थ अक्सर भिन्न होते

भाव को शब्दार्थ के अनुसार कैसे मान लूं मैं ।। ३ ।।

 

आज अपनी जीत को ही जगत तो

परिपाटियों को बिना समझे मानता है

जानने औ’ मानने में पर बड़ी असमानता है ।।

सुस्मिता ऊषा के बिखरे कुन्तलों की श्यामता को

अमावस की रात का अंधियार कैसे मान लूं मैं ।।४ ।।

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

मो. 9425484452

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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