डॉ कुन्दन सिंह परिहार
☆ व्यंग्य – एक अति-शिष्ट आदमी ☆
लक्ष्मी बाबू की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि वे लक्ष्मी-पुत्र हैं। पैसा हो तो आदमी के पास बहुत सी नेमतें अपने आप खिंची चली आती हैं। पैसा है तो आप बहुत आराम से राजनीतिज्ञ या समाजसेवक बन सकते हैं। धन है तो आप बहुत बड़े विद्वान बन सकते हैं।
लक्ष्मी के लाड़ले होने के कारण लक्ष्मी बाबू स्वभाविक रूप से नगर के गणमान्य नागरिक हैं। नगर का कोई कार्यक्रम उनकी उपस्थिति के बिना सफल या सार्थक नहीं होता। इसीलिए लक्ष्मी बाबू के पास ढेरों आमंत्रण-पत्र पहुँचते रहते हैं और वे अधिकांश लोगों को उपकृत करते रहते हैं।
चन्दा बटोरने वाले अक्सर लक्ष्मी बाबू के दरवाज़े पर दस्तक देते रहते हैं और उनके घर से बहुत कम चन्दा-बटोरकर निराश लौटते हैं। थोड़ा बहुत प्रसाद सबको मिल जाता है। चन्दा लक्ष्मी बाबू के यश और उनकी लोकप्रियता को बढ़ाता है। हर धनी की भूख धन के अलावा प्रतिष्ठा और लोकप्रियता की होती है। थोड़े धन के निवेश से प्रतिष्ठा का अर्जन हो जाता है।
लक्ष्मी बाबू के साथ खास बात यह है कि वे अत्यधिक शिष्ट आदमी हैं। यह गुण लक्ष्मी बाबू को प्रतिष्ठित बनाता है, लेकिन यह लोगों की परेशानी का कारण भी बन जाता है।
लक्ष्मी बाबू किसी भी आयोजन में पहुँचकर चुपचाप सबसे पीछे वाली कुर्सी पर बैठ जाते हैं। कुछ देर बाद जब आयोजकों की नज़र उन पर पड़ती है तो वे उन्हें मंच पर ले जाते हैं। लक्ष्मी बाबू पीछे ही बैठे रहने की ज़िद करते हैं, लेकिन दो आदमी उन्हें ज़बरदस्ती पकड़कर मंच तक ले जाते हैं। लक्ष्मी बाबू दोनों आदमियों के बीच लटके, दोनों तरफ बैठे लोगों की तरफ हाथ जोड़ते हुए मंच तक पहुँचाये जाते हैं और लोग उनके नाटक को देखते रहते हैं।
यदि कोई आयोजन दरियों पर होता है तो लक्ष्मी बाबू वहाँ बैठ जाते हैं जहाँ लोगों के जूते उतरे होते हैं। फिर आयोजक उनकी शिष्टता से पीड़ित, उन्हें उठा ले जाते हैं और वे उसी तरह टंगे, दोनों हाथ जोड़कर नाक पर लगाये, मंच तक चले जाते हैं। लेकिन यह ज़रूर होता है कि वे हर आयोजन में इसी तरह मंच पर पहुँच जाते हैं।
लक्ष्मी बाबू की इन आदतों के कारण आयोजकों को सतर्क रहना पड़ता है। पता नहीं लक्ष्मी बाबू कब धीरे से आकर पीछे बैठ जाएं। उनके लिए हमेशा चौकस रहना पड़ता है।
जैसा कि मैंने कहा,लक्ष्मी बाबू की शिष्टता चिपचिपाती रहती है। नमस्कार करते हैं तो कमर समकोण तक झुक जाती है। बुज़ुर्गों से मिलते हैं तो सीधे उनके चरण पकड़ लेते हैं। अपरिचितों से मिलते हैं तो उन्हें छाती से चिपका लेते हैं। महिलाओं से बात करते हैं तो हाथ जोड़कर उनके चरणों को निहारते रहते हैं। नज़र ऊपर ही नहीं उठती।
लक्ष्मी बाबू जब भाषण देते हैं तो विनम्रता उनके शब्दों से चू-चू पड़ती है। वाणी से शहद टपकती है। ‘मैं आपका सेवक’, ‘आपका चरण सेवक’, ‘मैं अज्ञानी’, ‘मैं मन्दबुद्धि’, ‘मैं महामूढ़’ जैसे शब्दों से उनका भाषण पटा रहता है। अति विनम्रता के नशे में उनका सिर दाहिने बायें झूमता रहता है।
लेकिन एक आयोजन में गड़बड़ हो गया। आयोजन के मुख्य अतिथि एक मंत्री जी थे। लक्ष्मी बाबू पहुँचे और आदत के मुताबिक पीछे वाली लाइन में बैठ गये। आयोजक मंत्री जी की अगवानी में व्यस्त थे, इसलिए उनकी तरफ किसी ने ध्यान नहीं दिया। पूर्व के आयोजनों में आसपास के लोग आयोजकों को उनके आने की खबर दे देते थे, लेकिन इस बार पूरा फोकस मंत्री जी पर था।
लक्ष्मी बाबू बैठे बैठे कसमसाते रहे। उन्होंने कई बार अपनी गर्दन लम्बी करके इधर उधर झाँका कि किसी का ध्यान उनकी तरफ खिंचे, लेकिन सब बेकार।
लक्ष्मी बाबू का मुँह उतर गया। चेहरे पर घोर उदासी छा गयी। वे मुँह लटकाये, मरे कदमों से चलकर अपनी कार तक पहुँचे। तभी मंत्री जी से फुरसत पाये आयोजक ने उन्हें देखा। प्रफुल्लित भाव से बोला, ‘अरे लक्ष्मी बाबू, आप कहाँ बैठे थे?आप दिखे ही नहीं।’
लक्ष्मी बाबू का मुँह गुस्से से विकृत हो गया। फुफकार कर बोले, ‘आपके आँखें हों तो दिखें। कम दिखता हो तो चश्मा लगवा लो भइया। आपको तो मंत्री जी दिखते हैं, हम कहाँ दिखेंगे?’
वे फटाक से कार का दरवाज़ा बन्द करके बैठ गये। फिर खिड़की से सिर निकालकर बोले, ‘अब आगे के कामों में मंत्री जी से ही चन्दा लेना।’
कार सर्र से चली गयी और आयोजक शिष्ट-शिरोमणि लक्ष्मी बाबू का यह रूप देखकर भौंचक्का रह गया।
© डॉ कुंदन सिंह परिहार
जबलपुर, मध्य प्रदेश