डॉ कुंदन सिंह परिहार
(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय डॉ कुन्दन सिंह परिहार जी का साहित्य विशेषकर व्यंग्य एवं लघुकथाएं ई-अभिव्यक्ति के माध्यम से काफी पढ़ी एवं सराही जाती रही हैं। हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहते हैं। डॉ कुंदन सिंह परिहार जी की रचनाओं के पात्र हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं। उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपकी एक अप्रतिम व्यंग्य रचना – ”किताब के कर्मकांड ‘। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार # 248 ☆
☆ व्यंग्य – किताब के कर्मकांड ☆
कवि कोमल प्रसाद ‘उदासीन’ का पहला कविता-संग्रह छप पर आ गया है। ‘उदासीन’ जी बहुत प्रसन्न हैं। कल से मोबाइल कान से हट नहीं रहा है। सभी मित्रों, शुभचिन्तकों को खुशखबरी दे रहे हैं। मिलने वालों के लिए मिठाई का इन्तज़ाम कर लिया है।
अगले दिन शहर के तीन चार साहित्यकार मिलने आ गये। सबसे आगे नगर के वरिष्ठ कवि झलकनलाल ‘अनोखे’। सब ने ‘उदासीन’ जी को बधाई दी। ‘अनोखे’ जी बोले, ‘अब आप असली साहित्यकार बन गये। किताब छपे बिना लेखक पक्का साहित्यकार नहीं माना जाता। अब आप हमारी जमात में शामिल हो गये।’
‘उदासीन’ जी खुश हुए। ‘अनोखे’ जी को धन्यवाद दिया।
‘अनोखे’ जी बोले, ‘अब आप बाकी कर्मकांड भी कर डालिए। उसके बिना किताब के प्रति लेखक का फर्ज पूरा नहीं होता।’
‘उदासीन’ जी ने पूछा, ‘कैसा कर्मकांड?’
‘अनोखे’ जी बोले, ‘किताब का विमोचन, किताब की चर्चा, किताब का प्रचार। इनके बिना आजकल लेखन का काम पूरा नहीं होता।’
‘उदासीन’ जी सोच में पड़ गये।
‘अनोखे’ जी बोले, ‘हम इस काम में आपकी मदद करेंगे। ये जो ‘निर्मम’ जी हैं, इन्हें कल आपके पास भेजूँगा। इन्हें अभी बीस हजार रुपये दे दीजिएगा। ये हॉल की बुकिंग वगैरह करा लेंगे, बैनर वैनर बनवा लेंगे, नाश्ते पानी,फोटो वीडियो का इन्तजाम कर लेंगे। मैं दिल्ली के दो कवियों— ‘नश्तर’ जी और ‘खंजर’ जी से बात कर लूँगा। उनसे मेरी रसाई है। जब बुलाता हूँ, आ जाते हैं। उन्हीं के कर-कमलों से किताब का विमोचन हो जाएगा। शाम को किताब पर उनके व्याख्यान हो जाएँगे। फिर होटल में बीस-पच्चीस लोगों का भोजन हो जाएगा। उसमें पत्रकार भी आमंत्रित हो जाएँगे। पत्रकारों को छोटी-मोटी भेंट दे देंगे तो कार्यक्रम का अच्छा प्रचार हो जाएगा। ‘निर्मम’ जी सब प्रबंध कर लेंगे। उन्हें इन बातों का बहुत अनुभव है।
‘नश्तर’ जी और ‘खंजर’ जी के लिए भोजन से पहले कुछ तरल पदार्थ का इन्तजाम करना पड़ेगा। वह भी ‘निर्मम’ जी देख लेंगे। मेरे खयाल से चालीस पचास हजार तक किफायत से सब काम हो जाएगा।’
सुनकर ‘उदासीन’ जी की आँखें माथे पर चढ़ गयीं। भयभीत स्वर में बोले, ‘इतना पैसा कहाँ से लाऊँगा? यह मेरी हैसियत से बाहर है।’
‘अनोखे’ जी कुपित हो गये। बोले, ‘आपको कवि के रूप में अपने को स्थापित भी करना है और अंटी भी ढीली नहीं करनी है। दोनों बातें एक साथ कैसे चलेंगीं?
‘भैया, किताब के कर्मकांड के लिए लोग अपने प्रॉविडेंट फंड का पैसा खर्च कर देते हैं, बेटी के ब्याह के लिए रखा पैसा समर्पित कर देते हैं, और आप ऐसे आँखें फाड़ रहे हैं जैसे हम कोई अनुचित बात कर रहे हों।’
‘उदासीन’ जी बोले, ‘ना भैया, इतना पैसा खर्च करना अपने बस का नहीं है। किताब में दम होगा तो अपने आप प्रचार हो जाएगा।’
‘अनोखे’ जी अपनी मंडली के साथ उठ खड़े हुए, बोले, ‘किताब में कितना भी दम हो लेकिन शुरू में उसे लोगों की आँखों के सामने चमकाना पड़ता है। बिना हर्रा फिटकरी डाले रंग चोखा नहीं होता। सोच लो, मन बदल जाए तो फोन कर देना। हम ‘निर्मम’ जी को भेज देंगे।’
दरवाज़े तक पहुँच कर ‘अनोखे’ जी घूम कर बोले, ‘किताब के कर्मकांड में पैसा तो जरूर खर्च होता है, लेकिन उसकी खुमारी महीने,दो महीने तक रहती है। बाद में कसके तो कसकती रहे।’
© डॉ कुंदन सिंह परिहार
जबलपुर, मध्य प्रदेश
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈