डॉ. ऋचा शर्मा
(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में अवश्य मिली है किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है तेज भागती जिंदगी परआधारित एक विचारणीय लघुकथा ‘उंगली उठी तो’। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद # 129 ☆
☆ लघुकथा – उंगली उठी तो ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆
‘चेतन! उधर देखो – ये क्या कर रहे हैं सब ? एक- सी मुद्रा में खड़े हैं, एक दूसरे की ओर उंगली दिखाते हुए।‘
‘कुछ कहना चाह रहे हैं क्या ?’ -सुयश बोला
‘हाँ, कुछ तो बोल रहे हैं, चेहरे पर गुस्सा दिख रहा है। पर सब एक ही तरह से खड़े हैं ?’
‘कोई मोर्चा निकल रहा है क्या ?’ – सुयश बोला
‘पता नहीं।’
चेतन! वे सब तो हँस रहे हैं लेकिन मुद्रा वैसी ही है एक दूसरे की ओर उंगली दिखाते हुए।
चेतन ने चारों ओर नजर दौड़ाई, इधर दौड़ा – उधर भागा, पर सब तरफ वही दृश्य, वैसी ही मुद्राएं । स्कूल, कॉलेज, सरकारी दफ्तर, राजनीति का कार्यालय या —–। टेलीविजन के कार्यक्रमों में भी तो नेता, मंत्री सब एक- दूसरे की ओर उंगली दिखाते हैं। उसे बचपन का खेल याद आया स्टेच्यू वाला। ये सब स्टेच्यू हो गए हैं क्या ?
पर खेल में तो जो जिस मुद्रा में रहता था उसी में स्टेच्यू हो जाता था, हाँ अच्छे से याद है उसे। बचपन में बहुत खेला है यह खेल। लेकिन यहाँ तो सब एक – सी ही मुद्रा में दिख रहे हैं।
किसी की उंगली अपनी तरफ उठती क्यों नहीं दिख रही ?
© डॉ. ऋचा शर्मा
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