डॉ  सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(अग्रज  एवं वरिष्ठ साहित्यकार  डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी  जीवन से जुड़ी घटनाओं और स्मृतियों को इतनी सहजता से  लिख देते हैं कि ऐसा लगता ही नहीं है कि हम उनका साहित्य पढ़ रहे हैं। अपितु यह लगता है कि सब कुछ चलचित्र की भांति देख सुन रहे हैं।  आप प्रत्येक बुधवार को डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’जी की रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज के साप्ताहिक स्तम्भ  “तन्मय साहित्य ”  में  प्रस्तुत है  अग्रज डॉ सुरेश  कुशवाहा जी  की  हमें जीवन के कटु सत्य से रूबरू कराती  होली पर्व पर एक विचारणीय कविता  “मनाएंगे कैसे होली……। )

☆  साप्ताहिक स्तम्भ – तन्मय साहित्य  # 38 ☆

☆ मनाएंगे कैसे होली…… ☆  

 

मुंह से निकल रही है आह

नीति पथ हुये जा रहे स्याह

शील नीलाम हो रहे हैं

सुबह और शाम हो रहे हैं

हर तरफ से आशंकायें

कहां कब क्या कुछ हो जाये

और ऐसे मे फिर से आज

पहिन कर मंहगाई का ताज

साथ ले धूर्तों की टोली

आ गई सजधज कर होली…..

 

सभी पांडव बैठे हैं मौन

विदुर धृतराष्ट्र भिष्म गुरू द्रोण

अनेकों द्रोपदियों की लाज

लूटते हैं दुशासन आज

कृष्ण, मथुरा में सोये हैं

मधुर सपनों में खोये है

टेर, लिखकर पहुंचाई है

नहीं कोंई सुनवाई है

बहन है भी तो मुंहबोली

आ गई सजधज कर होली……

 

हो रहे हैं, अजीब गठजोड़

मची है,  एक दूजे में होड़

कुर्सियों पर, जो बैठे हैं

नशे में, ऐंठे -ऐंठे है,

चोर,सब मौसेरे भाई

अंधेरी है,गहरी खाई

मजूर-मेहनतकश है बेहाल

प्रपंचों का फैला है जाल,

पुते कौए, बदरंगी ये

कोयलों की बोले बोली

आ गई सज-धज कर होली…..

 

भ्रष्ट फागें चलती है रोज

सजीव नव रागिनियों की खोज

चापलूसी के लगा गुलाल

हो रहे हैं कुछ मालामाल

रंग का कहीं अलग उन्माद

कहीं छाया घर में अवसाद

मनाए वे कैसे होली

नहीं है रंग अबीर रोली

यहाँ फाकों की फागें है

फटी जर्जर तन पर चोली

आ गई सजधज कर होली…..

 

© डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

जबलपुर, मध्यप्रदेश

मो. 989326601

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