श्री श्याम खापर्डे

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण कविता मुझे अब जीने की आस नही

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 186 ☆

☆ # “मुझे अब जीने की आस नही” # ☆

मैं तपते रेगिस्तान में

रेत के तूफान में

कब से भटक रहा हूँ

कब से अटक रहा हूँ

ढूंढ रहा हूं जल की बूंदें

हाथ जोड़े आंखें मूंदे

हर पल कितना भारी है

यह कैसी दुश्वारी है

अब मुश्किल है शायद बचना

हर तरफ फैली है मृगतृष्णा

मेरा लक्ष्य ही जल को पाना है

अपनी प्यास बुझाना है

फिर कैसे कह दूँ मुझे प्यास नहीं

मुझे अब जीने की आस नही

 

यह कैसे वक्त के धारे हैं

पथ में रखे अंगारे हैं  

तपती हुई चट्टानें हैं  

गर्मी सीना ताने हैं  

कोई पेड़ नहीं,

कोई छांव नहीं

बंजर जमीन है चारों तरफ़

दूर दूर तक कोई गांव नहीं

राह के पत्थर जैसे भाले हैं

पांव में कितने छालें हैं  

शरीर थक कर चूर है  

मंजिल कितनी दूर है  

धक धक करती धड़कन है

निराश कितना यह मन है

फिर कैसे कह दूँ  

मुझे आभास नहीं

मुझे अब जीने की आस नहीं

 

कुछ लोग मिले और छूट गये

रिश्ते बने और टूट गये

कुछ मैंने देखे सपने थे

कुछ दिल के करीब अपने थे

कुछ तपती धूप के साये थे

जब नींद टूटी तो पराये थे

मैं छाछ से ही जला था

मुझे अपनों ने ही छला था

निराले जीवन के रंग थे

अजीब दुनिया के ढंग थे

मैं तो अकेला ही चला था

तपते रेगिस्तान में ही पला था

जल की बूंद बूंद को तरसा था

पर पानी नहीं बरसा था

ना प्यास बुझी

ना भूख मिटी

ना प्यार मिला

किस किस से करूं

मैं यही गिला

फिर कैसे कह दूँ  

मुझे अहसास नहीं  

मुझे अब जीने की आस नहीं/

© श्याम खापर्डे 

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़) मो  9425592588

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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