डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  मानवीय जीवन पर आधारित एक विचारणीय आलेख सच्चे दोस्त : अनमोल धरोहर… । यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 243 ☆

सच्चे दोस्त : अनमोल धरोहर… ☆

साझेदारी करो, तो किसी के दर्द की करो, क्योंकि खुशियों के दावेदार तो बहुत हैं। जी हां! ज़माने में हंसते हुए व्यक्ति का साथ देने वाले तो बहुत होते हैं, परंतु दु:खी इंसान का साथ देना कोई पसंद नहीं करता। ‘सुख के सब साथी दु:ख में न कोई/ मेरे राम! एक तेरा नाम सांचा/ दूजा न कोय’ गीत की पंक्तियां उक्त भाव को पुष्ट करती हैं। सो! सच्चा दोस्त वही है, जो दु:ख व ग़म के समय उसका दामन थाम ले। परंतु ऐसे दोस्त बड़ी कठिनाई से मिलते हैं और ऐसा साथी जिसे मिल जाता है; पथ की बाधाएं-आपदाएं उसका बाल भी बांका नहीं कर सकतीं। सागर व सुनामी की लहरें उसे अपना निवाला नहीं बना सकतीं; आंधियां बहा कर नहीं ले जा सकतीं, क्योंकि सच्चा मित्र अमावस के अंधकार में जुगनू की भांति उसका पथ आलोकित करता है। जी• रेण्डोल्फ का यह कथन ‘सच्चे दोस्त मुश्किल से मिलते हैं; कठिनाई से छूटते हैं और भुलाए से नहीं भूलते। किसी दुश्मन की गाली भी इतनी तकलीफ़ नहीं देती, जितनी एक दोस्त की खामोशी।’ सच्चा दोस्त आपका साथ कभी नहीं छोड़ता और आप उसकी स्मृतियों से भी कभी निज़ात नहीं पा सकते।’ इसलिए कहा जाता है कि आप दुश्मन की उन ग़लतियों को तो आसानी से सहन कर सकते हो, परंतु दोस्त की खामोशी को नहीं। यदि किसी कारणवश वह आपसे गुफ़्तगू नहीं करता, तो आप परेशान हो उठते हैं और तब तक सुकून नहीं पाते; जब तक उसके मूल कारण को नहीं जान पाते। शायद! इसीलिए इस तथ्य से इन्कार नहीं किया जा सकता कि ‘खामोशियां बोलती हैं। वे अहसास हैं, जज़्बात हैं, हृदय की पीड़ा हैं, मुखर मौन हैं, जो सबके बीच अकेलेपन का अहसास कराती हैं।’

वैसे तो आजकल हर इंसान भीड़ में अकेला है… अपने-अपने द्वीप में कैद है, क्योंकि उसे किसी से कोई संबंध-सरोकार नहीं रहता। वह केवल मैंं, मैं के राग अलापता है; स्वयं को सर्वश्रेष्ठ समझता है और ऐसे लोगों के संगति से भी डरता है, क्योंकि उनके साये में वह कभी भी पनप नहीं सकता। जैसे एक पौधे को विकसित होने के लिए अच्छी आबो-हवा, रोशनी व खाद की आवश्यकता होती है; वैसे ही एक इंसान के सर्वांगीण विकास के लिए अच्छे, स्वच्छ व स्वस्थ वातावरण, सच्चे दोस्त व सुसंस्कारों की दरक़ार होती है, जो हमें माता-पिता व गुरुजनों द्वारा प्राप्त हो सकते हैं। वैसे भी कहा गया है कि दुनिया में माता-पिता से बड़ा हितैषी, तो कोई हो ही नहीं सकता। सो! हमें सदैव उनकी भावनाओं का सम्मान करना चाहिए; उनके संदेशों को ग्रहण कर जीवन में धारण करना चाहिए, क्योंकि वे वेद-पुराण के समान हैं; जो हमें सुसंस्कारों से पल्लवित करते हैं। इसी भांति सच्चे दोस्त भी हमें ग़लत राह पर चलने से बचाते हैं और हमारा पथ-प्रदर्शन करते हैं। यदि हम पर दु:खों व ग़मों का पर्वत भी टूट पड़ता है, तो भी वे हमारी रक्षा करते हैं; धैर्य बंधाते हैं और अच्छे डॉक्टर की भांति रोग की नब्ज़ पकड़ते हैं। इसलिए मानव को दु:खी व्यक्ति के दर्द को अवश्य बांटना चाहिए, क्योंकि दु:ख बांटने से घटता है और खुशी बांटने से बढ़ती है। वैसे भी मानव की यह प्रवृत्ति है कि वह सुख अकेले में भोगना चाहता है और दु:खों को बांट कर अपनी पीड़ा कम करना चाहता है।

परमात्मा भाग्य नहीं लिखता, परंतु जीवन के हर कदम पर आपकी सोच, दोस्त व कर्म आपका भाग्य लिखते हैं। जीवन में बहुत से सौदे होते हैं।  अधिकांश लोग सुख बेचने वाले होते हैं, परंतु दु:ख खरीदने वाले नहीं मिलते– यही है जीवन का सार व सत्य है। सो! हमें सदैव अच्छे दोस्त बनाने चाहिएं। सकारात्मक सोच के अनुकूल श्रेष्ठ कर्म करने चाहिएं, क्योंकि जहां सत्संगति होगी;  वहां सोच तो नकारात्मक हो ही नहीं सकती। यदि सोच अच्छी है, तो कर्म भी उसके अनुकूल सबके लिए मंगलकारी होंगे। सो! ग़लत राहों पर चलने का तो प्रश्न ही नहीं उठता। यदि आप जीवन में खुश रहना चाहते हैं, तो अपने फैसले परिस्थिति को देखकर कीजिए। इसलिए जो भी दूसरों की प्रभुसत्ता से आकर्षित होकर फैसले करते हैं; वे सदैव दु:खों के सागर में अवगाहन करते रहते हैं। इसलिए मानव को समय व परिस्थिति के अनुकूल निर्णय लेने चाहिएं; न कि लोगों की खुशी के लिए, क्योंकि ज़िंदगी में सबको खुश रखना असंभव होता है। यह तो सर्वविदित है कि ‘चिराग जलते ही अंधेरे रूठ जाते हैं।’ इसलिए जीवन में जो भी आपको उचित लगे; आत्म-संतोष हित वही करें, क्योंकि यदि सोच सकारात्मक व खूबसूरत होगी, तो सब अच्छा ही अच्छा नज़र आयेगा, अन्यथा सावन के अंधे की भांति सब हरा ही हरा दिखाई पड़ेगा।

जीवन में दोस्तों से कभी उम्मीद मत रखना, क्योंकि उम्मीद मानव को दूसरों से नहीं, ख़ुद से करनी चाहिए। यदि दूसरे साथ न दें, तो बुरा मत मानिए, क्योंकि यदि स्वप्न आपके हैं, तो कोशिश भी आपकी होनी चाहिए। अपेक्षा व उपेक्षा दोनों मानव के लिए हानिकारक होती हैं। यदि आप किसी से अपेक्षा अर्थात् उम्मीद रखते हैं, तो उसके टूटने पर आपको अत्यंत दु:ख होता है। यदि दूसरे आपकी उपेक्षा करते हैं, तो उस स्थिति में आप ग़मों के सागर में डूबने के पश्चात् उबर नहीं पाते। सो! इनके जंजाल से सदैव ऊपर उठिए और किसी पर भी अधिक विश्वास न कीजिए, क्योंकि जब विश्वास टूटता है, तो बहुत दु:ख होता है, पीड़ा होती है। संबंध तभी क़ायम रह पाते हैं, यदि दोनों ओर से निभाए जाते हैं, क्योंकि एक तरफ से तो रोटी भी सेंक कर नहीं बनाई जा सकती।

संबंध अर्थात् सम रूप से बंधा हुआ अर्थात् जहां वैषम्य नहीं, सम्यक् भाव हो। वैसे संबंध भी बराबरी वालों के साथ निभाए जा सकते हैं। जैसे जीवन रूपी गाड़ी को सुचारू रूप से चलाने के लिए दो समान व संतुलित पहियों की अहम् आवश्यकता होती है, वैसे ही यदि दो विपरीत मन:स्थिति, सोच व स्टेट्स के लोगों के मध्य संबंध होता है, तो वह स्थायी नहीं रह पाता; जल्दी खण्डित हो जाता है। इसलिए दोस्ती भी बराबर वालों में शोभती है। वैसे भी ज़िंंदगी तभी चल सकती है; यदि मानव में यह धारणा हो कि ‘मैं भी सही और तू भी सही।’ यदि मैं सही हूं और वह गलत है, तो भी संबंध कायम रह सकते हैं। परंंतु यदि मैं ही सही हूं, तो वह ग़लत है और वह सोच जीवन में बरक़रार रहती है; तो वह सोच अनमोल रिश्तों को दीमक की भांति चाट जाती है। सो! जीवन में मनचाहा बोलने के लिए अनचाहा सुनने की ताकत भी होनी चाहिए। रिश्ते बोल से नहीं, सोच से बनते हैं। अक्सर लोग सलाह देने में विश्वास रखते हैं; सहायता देने में नहीं। रिश्तों के वज़न को तोलने के लिए कोई तराजू नहीं होता। संकट के समय सहायता व परवाह बताती है, कि रिश्तों का पलड़ा कितना भारी है। इसलिए जो इंसान आपके शब्दों का मूल्य नहीं समझता; उसके समक्ष मौन रहना ही बेहतर है, क्योंकि क्रोध हवा का वह झोंका है, जो बुद्धि रूपी दीपक को तुरंत बुझा देता है।

आपके शब्दों द्वारा आपके व्यक्तित्व का परिचय मिल जाता है। इसलिए मानव को यथा-समय व यथा-परिस्थिति बोलने का संदेश दिया गया है, क्योंकि जब तक मानव मौन रहता है, उसकी मूर्खता उजागर नहीं होती। हम एक-दूसरे के बिना कुछ भी नहीं– यही रिश्तों की खूबसूरती है। वैसे भ्रम रिश्तों को बिखेरता है और प्रेम से बेग़ाने भी अपने बन जाते हैं। बदलता वक्त व बदलते लोग किसी के नहीं हुआ करते… ऐसे लोगों से बच कर अर्थात् सावधान रहना चाहिए, क्योंकि वे गिरगिट की भांति रंग बदलते हैं। वे विश्वास के क़ाबिल नहीं होते, क्योंकि वे पल-भर में तोला और पल-भर में माशा हो जाते हैं। वे रिश्तों में सेंध लगाने में माहिर होते हैं अर्थात् अपने बन, अपनों को छलते हैं। उनसे वफ़ा की उम्मीद रखना वाज़िब नहीं।

आइए! मन रूपी दीपक को जलाएं। अच्छे-बुरे व सच्चे-झूठे की पहचान कर, एक-दूसरे के प्रति विश्वास बनाए रखें। सुख-दु:ख में साथ निभाएं। दूसरों पर दोषारोपण करने से पूर्व अपनी अंतरात्मा में झांकें व आत्मविश्लेषण करें। दूसरों को कटघरे में खड़ा करने से पूर्व स्वयं को उस तराज़ू में रख कर तोलें तथा उन्हें पूर्ण अहमियत दें। सदैव मधुर वाणी में बोलें और कभी कटाक्ष न करें। ज़िंदगी दोबारा नहीं मिलती। इसलिए नीर-क्षीर-विवेकी बन ‘सबका मंगल होय’ की कामना करें।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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