डॉ कुंदन सिंह परिहार
(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय डॉ कुन्दन सिंह परिहार जी का साहित्य विशेषकर व्यंग्य एवं लघुकथाएं ई-अभिव्यक्ति के माध्यम से काफी पढ़ी एवं सराही जाती रही हैं। हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहते हैं। डॉ कुंदन सिंह परिहार जी की रचनाओं के पात्र हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं। उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपकी एक अप्रतिम व्यंग्य – ”कंछेदी का स्कूल‘। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार # 252 ☆
☆ व्यंग्य ☆ कंछेदी का स्कूल ☆
कंछेदी अपने क्षत-विक्षत स्कूटर पर मेरे घर के कई चक्कर लगा चुके हैं। ‘कुछ करो मासाब। हमें तो चैन नहीं है और आप आराम से बैठे हैं। कुछ हमारी मदद करो।’
कंछेदी कई धंधे कर चुके हैं। दस बारह भैंसों की एक डेरी है, शहर में गोबर के भी पैसे खड़े कर लेते हैं। इसके अलावा ज़मीन की खरीद- फरोख़्त का धंधा करते हैं। सड़कों पुलियों के ठेके भी लेते हैं। सीमेंट की जगह रेत मिलाकर वहाँ से भी मिर्च-मसाले का इंतज़ाम कर लेते हैं।
फिलहाल कंछेदी अंगरेजी स्कूलों पर रीझे हैं। उनके हिसाब से अंगरेजी स्कूल खोलना आजकल मुनाफे का धंधा है। अपने घर के दो कमरों में स्कूल चलाना चाहते हैं, लेकिन अंगरेजी के ज्ञान से शून्य होने के कारण दुखी हैं। मेरे पीछे पड़े हैं— ‘कुछ मदद करो मासाब। हम अंगरेजी पढ़े होते तो अब तक कहीं से कहीं पहुँच गए होते।’
अंगरेजी स्कूलों के नाम पर कंछेदी की लार टपकती है। जब भी बैठते हैं, घंटों गाना गाते रहते हैं कि किस स्कूल ने मारुति खरीद ली, किसके पास चार गाड़ियाँ हैं, किसने दो साल में अपनी बिल्डिंग बना ली।
मैं कहता हूँ, ‘तुमने भी तो दूध में पानी और सीमेंट में रेतक मिलाकर खूब पैसा पीटा है, कंछेदी। कंजूसी के मारे यह टुटहा स्कूटर लिये फिरते हो। कम से कम इस पर रंग रोगन ही करा लो।’
कंछेदी मुस्करा कर कहते हैं, ‘कहाँ मासाब! कमाई होती तो ऐसे फिरते? दिन भर दौड़ते हैं तब दो-चार रुपये मिलते हैं। स्कूटर पर रंग कराने के लिए हजार बारह-सौ कहांँ से लायें? आप तो मसखरी करते हो।’
कंछेदी बौराये से चक्कर लगा रहे हैं। अंगरेजी स्कूल उनकी आँखों में दिन-रात डोलता है। ‘मासाब, एक बढ़िया सा नाम सोच दो स्कूल के लिए। ऐसा कि बच्चों के बाप पढ़ें तो एकदम खिंचे चले आयें। फस क्लास नाम। आपई के ऊपर सब कुछ है।’
दो-चार चक्कर के बाद मैंने कहा, ‘कहाँ चक्कर में पड़े हो। स्कूल का नाम रखो के.सी. इंग्लिश स्कूल। के.सी. माने कंछेदी। इस तरह स्कूल तो चलेगा ही, तुम अमर हो जाओगे। एक तीर से दो शिकार। जब तक स्कूल चलेगा, कंछेदी अमर रहेंगे।’
कंछेदी प्रसन्न हो गये। बोले, ‘ठीक कहते हो मासाब। के.सी. इंग्लिश स्कूल ही ठीक रहेगा। बढ़िया बात सोची आपने।’
के.सी. इंग्लिश स्कूल का बोर्ड लग गया। कंछेदी ने घर के दो कमरों में छोटी-छोटी मेज़ें और बेंचें लगा दीं। ब्लैकबोर्ड लगवा दिये। बच्चों के दो-तीन चित्र लाकर टाँग दिये। एक कमरे में मेज़-कुर्सी रखकर अपना ऑफिस बना दिया। जोर से गठियाई अंटी में से कंछेदी कुछ पैसा निकाल रहे हैं। पैसे का जाना करकता है। कभी-कभी आह भरकर कहते हैं, ‘बहुत पैसा लग रहा है मासाब।’ लेकिन निराश नहीं हैं। लाभ की उम्मीद है। धंधे में पैसा तो लगाना ही पड़ता है।
एक दिन कंछेदी आये, बोले, ‘मासाब, परसों थोड़ा समय निकालो। दो मास्टरनियों और एक हेड मास्टर का चुनाव करना है। उनसे अंगरेजी में सवाल करना पड़ेंगे। कौन करेगा? दुबे जी को भी बुला लिया है। आप दोनों को ही सँभालना है।’
मैंने पूछा, ‘उन्हें तनख्वाह क्या दोगे?’
कंछेदी बोले, ‘पाँच पाँच हजार देंगे। हेड मास्टर को छः हजार दे देंगे।’
मैंने कहा, ‘पाँच हजार में कौन तुम्हारे यहाँ मगजमारी करेगा?’
कंछेदी बोले, ‘ऐसी बात नहीं है मासाब। मैंने दूसरे स्कूलों में भी पता लगा लिया है। अभी पाँच हजार से ज्यादा नहीं दे सकते। फिर मुनाफा होगा तब सोचेंगे। अभी तो गाँठ का ही जा रहा है।’
नियत दिन मैं स्कूल पहुँचा। कंछेदी बढ़िया धुले कपड़े पहने, खिले घूम रहे थे। दफ्तर के दरवाज़े पर एक चपरासी बैठा दिया था। मेज़ पर मेज़पोश था और उस पर कलमदान, कुछ कागज़ और पेपरवेट। जंका-मंका पूरा था।
मैंने कंछेदी से कहा, ‘तुमने कमरों में पंखे नहीं लगवाये। गर्मी में बच्चों को भूनना है क्या?’
कंछेदी दुखी हो गये— ‘फिर वही बात मासाब। आपसे कहा न कि कुछ मुनाफा होने दो। अब तो मुनाफे का पैसा ही स्कूल में लगेगा। जेब से बहुत पैसा चला गया।’
इंटरव्यू के लिए आठ महिलाएँ और तीन पुरुष थे। उनमें से दो रिटायर्ड शिक्षक थे। कंछेदी हम दोनों के बगल में, टाँग पर टाँग धरे, ठप्पे से बैठे थे।
उम्मीदवार आते, हम उनके प्रमाण- पत्र देखते, फिर सवाल पूछते। जब हम सवाल पूछने लगते तब कंछेदी भौंहें सिकोड़कर प्रमाण- पत्र उलटने पलटने लगते। जब उम्मीदवार से हमारे सवाल-जवाब चलते तो कंछेदी जानकार की तरह बार-बार सिर हिलाते।
कोई सुन्दर महिला-उम्मीदवार कमरे में घुसती तो कंछेदी की आँखें चमकने लगतीं और उनके ओंठ फैल जाते। वे मुग्ध भाव से बैठे उसे देखते रहते। जब वह इंटरव्यू देकर बाहर चली जाती तो कंछेदी बड़ी उम्मीद से हमसे कहते, ‘ये ठीक है।’ हम उनसे असहमति जताते तो वे आह भरकर कहते, ‘जैसा आप ठीक समझें।’
कंछेदी का काम हो गया। दो शिक्षिकाएँ नियुक्त हो गयीं। एक रिटायर्ड शिक्षक को हेड मास्टर बना दिया।
कंछेदी बीच-बीच में मिलकर स्कूल की प्रगति की रिपोर्ट देते रहते। स्कूल की प्रगति उत्साहवर्धक थी। पंद्रह बीस बच्चे आ गये थे, और आने की उम्मीद थी।
कंछेदी अपनी योजनाएँ भी बताते रहते। कहते, ‘अगले साल से हम किताबें स्कूल में ही बेचेंगे। यूनीफॉर्म भी हम खुद ही देंगे। टाई बैज भी। अब मासाब, धंधा किया है तो मुनाफे के सब रास्ते निकालने पड़ेंगे। दिमाग लगाना पड़ेगा। आपका आशीर्वाद रहा तो साल दो साल में स्कूल मुनाफे की हालत में आ जाएगा।
कंछेदी का स्कूल दिन-दूनी रात- चौगुनी तरक्की कर रहा है। भीड़ दिखायी पड़ने लगी है। रिक्शों के झुंड भी दिखाई पड़ने लगे हैं। कंछेदी स्कूल की बागडोर पूरी तरह अपने हाथों में रखे हैं।
कंछेदी पूरे जोश में हैं। धंधा फायदे का साबित हुआ है। उन्हें पूरी उम्मीद है कि वे जल्दी ही एक मारुति कार खरीदने में समर्थ हो जाएँगे। कहते हैं, ‘मासाब, बस चार छः महीने की बात और है। फिर एक दिन आपके दरवाजे पर एक बढ़िया मारुति कार रुकेगी और उसमें से उतरकर आपका सेवक कंछेदीलाल आपका आशीर्वाद लेने आएगा।’
© डॉ कुंदन सिंह परिहार
जबलपुर, मध्य प्रदेश
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈